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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रन्थ
की अपेक्षा कुछ भिन्न था। यों तो भट्टारकों के समान ही श्वेताम्बर सम्प्रदाय के कवि और लेखक भी नवीन भावों और सन्दर्भों के स्थान पर समस्या पूरर्यात्मक या हेमचन्द्राचार्य जैसे प्रतिभाशाली प्राचार्यों के पदचिन्हों का अनुसरण करते रहे । संक्षेप में उक्त छह सौ वर्षों के कालखण्ड को जैन संस्कृत साहित्य का पुनरावृत्तकाल भी कहा जा सकता है। हम इस कालखण्ड को भट्टारक युग के नाम से इस लिए अभिहित करेंगे कि इस युग में भट्टारकों ने ही प्रमुख रूप से बहुसंख्यक रचनाएं निबद्ध की हैं। इस युग की प्रमुख साहित्यिक प्रवृत्तियां निम्नांकित हैं
-:
१. पौराणिक चरितकाव्य
२. लघु प्रबन्ध काव्य
३. सन्देश या दूतकाव्य
४. प्रबन्धात्मक प्रशस्तिमूलक ऐतिहासिक साहित्य ५. सन्धानकाव्य
६. सूक्ति साहित्य
७. स्तोत्र एवं पूजा भक्ति साहित्य
८. नाटक
६. चरित्र या प्राचारमूलक धार्मिक साहित्य १०. समस्यात्मक साहित्य
११. न्याय, दर्शन, और आध्यात्मिक साहित्य १२. संहिता विषयक विविध साहित्य १३. टीका-टिप्पणी विषयक विविध साहित्य १४. कथा और पुराण विषयक साहित्य १५. कोप, छन्द एवं अलंकार विषयक साहित्य
१- पौराणिक चरित काव्य विषयक प्रवृत्ति:
जैन साहित्य में परित नामान्त काव्यों का प्रारम्भ जटासिंह नन्दि के बराङ्ग चरित से होता है। इस साहित्यिक प्रवृत्ति में एक साथ चरित, दर्शन, प्राचार, रोमान्य, प्रेम, कामतस्व और भक्तितत्व का समवाय पाया जाता है, भट्टारक युगीन चरित काव्यों में वरिष विकास की अपेक्षा पौराणिकता ही प्रमुख
1 इस कोटि के काव्यों में पौराणिक कथाओंों को
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ग्रहण कर वर्णन विस्तार और चमत्कार के बिना ही कथा के विकासक्रम में चरितों को निबद्ध करने का प्रयास किया है। परिणाम यह निकला है कि इस युग के पौरणिक चरित काव्य सम्प्रदाय विशेष की सीमा में प्रावद्ध होकर धर्मकम -काव्य बन गये हैं। काव्य चमत्कार एवं रसोशेधन के लिये जिस सौन्दर्यानुभूति को आवश्यकता कवि को रहती है और जिस सौन्दर्यानुभूति की अभिव्यञ्जना से कवि पौराणिक इतिवृत को काव्य बनाता है उसका प्रायः प्रभाव ही इस युग के काव्य में रह गया। संक्षेप में इस प्रवृत्ति की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं:
(१) कथावस्तु में गहनता की धपेक्षा व्यास का समावेश और काव्य के स्थान पर पौराणिक प्रायाम का विस्तार
(२) सूक्ष्म भावों की अभिव्यंजना के स्थान पर उपदेश स्थापना का प्रयास काव्य के प्रणेताओं ने कवि-धर्म का निर्वाह न कर कथावाचक के धर्म का निर्वाह किया है। फलतः काव्य-तत्व के स्थान पर उपदेश तत्व ही प्रमुख है ।
(३) घटनाओं, पात्रों या परिवेश की सन्दर्भ पुरस्सर व्याख्या के स्थान पर केवल वातावरण के सौरभ का ही नियोजन महाकाव्यों के वस्तु वर्णनों में इस प्रकार का व्यापक चमत्कार निहित रहता है, जिससे पाठक घटनाओं और पात्रों के साथ साधारणीकरण को प्राप्त हो जाता है। भाव किसी पात्रविशेष के न होकर जनसाधारण के बन जाते है, पर भट्टारक-युग के चरित-काव्यों में साधारणीकरण की प्रक्रिया यथोचित रूप में घटित नहीं हो सकी है। इसका प्रधान कारण यही है कि उस युग के कवियों ने काव्य का वातावरण न उपस्थित कर सीधे कथा का ही धारम्भ कर दिया है। फलतः काव्य रस के स्थान पर पाठक को पौराणिक कथा का रस ही उपलब्ध हो पाता है ।
(४) कथावस्तु के प्रवाह एवं उसकी मार्मिकता के निर्वाह के हेतु कथानक गठन में सघनता के स्थान