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भट्टारकयुगीन जैन संस्कृत साहित्य की प्रवृत्तियाँ
प्रो० डॉ० नेमीचन्द्र शास्त्री, धारा
वि या लेखक प्रपने चतुर्दिक फैले हुए विश्व कृषि को केवल बाह्य नेत्रों से ही नहीं देखता, बल्कि पन्तश्चक्षु द्वारा उसके सौन्दयं एवं वास्तविक रूप का प्रवलोकन करता है धीर जगत के अनुभव के साथ अपना व्यक्तित्व मिलाकर जड़चेतनात्मक विश्व का निरीक्षण करता है। वह जीवन के सर्वोतम क्षणों का साक्षात्कार कर अपने सौन्दर्य बोध को बाह्य जगत की प्रनेक रूपता प्रौर अन्तर्जगत की रहस्यमयी विविधता अभिव्यक्त करता है। यही कारण है कि साहित्य किसी भी जाति या सम्प्रदाय का दर्पण होता है मीर उसमें लोकोत्तर भाल्हाद उत्पन्न करने की क्षमता विद्यमान रहती है ।
जैन साहित्य में संस्कृत काव्य का सूत्रपात प्राचार्य समन्त भद्र के स्तोत्र - साहित्य से होता है, पर विकास की चरम सीमा भट्टारक युग में पाई जाती है। विविध विषयक विपुल रचनाएं इस युग में लिखी गई हैं । उचना परिमाण की दृष्टि से यह युग पर्याप्त महत्वपूर्ण है। यह सत्य है कि इस युग में कुछ ही भट्टारक प्रतिभाशाली हुए हैं । पर ग्रन्थ रचना और ग्रन्थ संरक्षरण के क्षेत्र में प्रत्येक
भट्टारक ने मोगदान दिया है । संस्कृत, प्राकृत धौर urse भाषा का प्रौड़ अध्ययन भले ही भट्टारकों मे न किया हो पर पुरानी परम्परा के अनुकरण पर उक्तभाषाधों में पर्याप्त साहित्य का प्रणयन किया है। दर्शन, सिद्धांत, ज्योतिष, प्रायुर्वेद, काव्य, अलंकार प्रसूति विषयों की अभिशता भट्टारकों में वर्तमान थी। ये केवल मठाधीश के रूप में ही अपनी विधाga का चमत्कार जन साधारण के समक्ष उपस्थित नहीं करते थे बल्कि राजा महा
राजाओं और सेठ साहूकारों को प्रेरित कर स्वयं साहित्य-सृजन के प्रतिरिक्त अन्य विद्वानों धौर कवियों से भी ग्रन्थ रचना कराते थे । धर्मप्रचार करना, जन साधारण को धर्म के प्रति श्रद्धालु बनाना, स्वयं ग्रन्थ लिखना, अन्य विद्वानों से लिखवाना एवं सरस्वती का संरक्षरण करना भट्टारकों का जीवन लक्ष्य था । कई भट्टारकों के कार्यकाल में प्रार्य ग्रन्थों की सहस्रों पाण्डुलिपियां तैयार कराई गयी हैं । व्रत विधान, पूजा-पाठ एवं जीवनोपयोगी प्रौषधि तन्त्रादि विषयक साहित्य का प्ररणयन इस युग में निश्चयतः सर्वाधिक हुआ है।
भट्टारक सम्प्रदाय के उल्लेख नयीं दाती से ही उपलब्ध होने लगते हैं पर इस युग का प्रारम्भ १३ वीं शती से होता है। प्रतः १३वीं शती से १८ वी शती तक का समय भट्टारक युग के अन्तर्गत परिगणित है । इन छह सौ वर्षों के काल में साहित्य और संस्कृति के प्रचार का ध्वज भट्टारक वर्ग के ही हाथ में था । प्रारम्भ में यह वर्ग निश्चयतः निस्पृही, त्यागी, ज्ञानी धौर जितेन्द्रिय था । हाँ, उत्तरकाल में भट्टारकों में ऐसे दोष अवश्य दृष्टिगत होते हैं जिन दोषों के कारण यह वर्ग अपने कर्तव्य से च्युत तो हुधा ही, साथ ही साहित्य के स्तर और धर्म के स्वरूप विवेचन में भी अनेक कमियाँ उत्पन्न हो गई।
दूसरी भोर इस काल खण्ड में श्वेताम्बर सम्प्रदाय में मुनि धौर यतियों का वर्ग भी साहित्य सृजन में प्रवृत्त था। इस वर्ग के लेखक धौर कवियों ने भी भट्टारक युगीन प्रवृत्तियों का अनुसरण किया । साथ ही कुछ ऐसी साहित्यिक विधाएं भी प्रादुर्भूत हुईं जिनका साहित्यिक मूल्य पूर्वयुगीन साहित्य