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________________ जैन संस्कृति में नारी के विविध रूप प्रेममुमन जैन जन संस्कृति यम-नियम प्रौर संयम की संस्कृति कन्या की स्थिति "है। उसके स्वभावतः दो पक्ष हमारे सामने पुत्रियां समाज के लिए बोझ नहीं होती थीं उपस्थित होते हैं। प्रथम दार्शनिकपक्ष जिसके सहारे भौर न मां-बाप के लिये अभिशाप ही। पिता जैन संस्कृति अपनी मात्मा नैवर्तक प्रवृत्ति को सुर- साक्षात् कला रूप पुत्री को देख कर आनन्दित क्षित रख सकी है और दूसरा पक्ष व्यावहारिक है, होता था।' कन्यागों के जन्म पर भी उत्सव जिसके द्वारा वह अन्य भारतीय संस्कृतियों के साथ मनाये जाते थे। माता के गभिरणी होने पर जैसे कदम मिलाकर चल सकने में समर्थ हुई है। हिन्दू संस्कारों में पुसवन संस्कार करने का निर्देश है, जिसमें मात्र पुत्र उत्पन्न होने की कामना की जैन संस्कृति ने अपने इन दोनों पक्षों की रष्टि से जाती है। ऐसा कोई संस्कार जैन साहित्य में दिखाई भारतीय नारी की व्याख्या की है। दर्शनपक्ष ने जहां नहीं पड़ता । प्रतः जैन संस्कृति पुत्र मोर पुत्री को नारी को मोक्षमार्ग में बाधक तथा एक परिग्रह के रूप समान दृष्टि से देखती है। में देखा है, वहां मंस्कृति के व्यावहारिक पक्ष ने नारी को इतने ऊपर जा बैठाया है, जहां अन्य भारतीय कन्याओं का लालन-पालन ढंग से करने के बाद संस्कृतियों में स्वीकृत नारी नहीं पहुंच पाती। जैन उन्हें उचित शिक्षा देना, चौसठ कलामों में पारंगत संस्कृति में हमें नारी के दोनों रूपों का सम्मिश्रण कराना गृहस्थ का कर्तव्य था । यही कारण है कि प्राप्त होता है। जैन संस्कृति में नारी को हेय देखने कन्यायें इतनी होशियार मौर विदुषी हो जाती थीं की भावना अन्य संस्कृतियों का तात्कालिक प्रभाव कि वे ऐसी अनेक समस्यायें जो उनके पिता नहीं है तो नारी को तपस्या के उच्च शिखर पर पारूढ़ सलझा पाते थे.चटकी मारते सलझा देती थीं। 3 कर पूजना जैन संस्कृति के हृदय को पुकार। भगवान ऋषभदेव ने अपनी दोनों पुत्रियों ब्राह्मी नारी के विविध रूपों का जैन संस्कृति में और सुन्दरी को ऐसी शिक्षा का प्रबन्ध किया था चित्रण हमा है। उसके जन्म से लेकर मत्यु तक कि वे दोनों अंक विद्या और अक्षरशास्त्र की मधिकी कहानी वहां विभिन्न रंगों में चित्रित है। उचित ष्ठात्री थी।" यही होगा, नारी के समस्त पहलुनों पर विकास-क्रम कन्यायें उस समय माता-पिता को कृपा पर की दृष्टि से विचार किया जाय । निर्भर नहीं रहती थीं । उनका पैत्रिक सम्पत्ति में -- - १. भादिपुराण पर्व ६ श्लोक ८३. २. पुमान् प्रमूयते येन कर्मणा तत् पुंसवनमीरितम् । -हिन्दू संस्कार पृष्ठ ७३ ३. प्रावश्यक चूणि ६. पृष्ठ ५२२ ४. प्राविपुराण पर्व १६, श्लोक १०३-१०४
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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