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________________ बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रन्य भी पूर्ण हिस्सा रहता था। किन्तु फिर भी वह कन्यायें है जिन्होंने प्राजन्म ब्रह्मचर्य पालन कर अपनी नाना कलामों द्वारा धनोपार्जन कर परिवार धर्म साधा था। को आर्थिक लाभ कराती थीं। भाजपंसा उन्हें जैनागमों में बरिणत स्वयम्बरों के दृश्य इस परिवार के प्राश्रित होकर नहीं रहना पड़ता था। माता पा र सनने में जैन कथानों की कन्यायें तो राज दरबार तक में स्वतन्त्र थी। वैवाहिक क्रियाये किस प्रकार सम्पन्न अपना स्थान बना चुकी थीं। होती थी यह प्रौर बात है। नाभिराय इसके प्रथम परिवार में कन्या के उत्पन्न होने का अर्थ था सम्पन्नकर्ता थे। उस समय के विवाह कम उम्र में उस गृहस्थ के त्रिवर्गों की सिद्धि । अपनी सुयोग्य कन्या नहीं होते थे। जैन शास्त्रों के अनुसार जिसका का उचित समय पर सत्पात्र के साथ विवाह कर बाल भाव समाप्त हो गया हो जिसके शारीरिक देने से गृहस्थ को धर्म, अर्थ और काम इन तीनों नौ अंग जागृत हो गये हों तथा जो भोग करने में को साधने का फल मिलता है। क्योंकि जिस घर समर्थ हो ऐसे व्यक्ति विवाह के योग्य समझे जाते में कन्या जाती है, वहां की गृहस्थी पूर्ण हो जाती हैं। इस मान्यता के अनुसार बाल-विवाह को है । धर्म, सन्तान और कुल की उन्नति के लिए जैन संस्कृति स्वीकार नहीं करती। अतः उस कन्या को विवाह कर लाना प्रत्येक गृहस्थ का समय की नारियां चिर वैधव्य जैसे दारुण दुख से कर्तव्य है। अतः कन्या समाज व परिवार के लिये दूर थीं। जैन संस्कृति में उस धुरी के रूप में स्वीकृत की वैवाहिक क्रियानों से सम्बन्धित कुछ प्रसंग ऐसे गई है, जिस पर सम्पूर्ण गृहस्थाश्रम चूमता है। भी मिलते हैं जिनमें बहिन को अपने सगे भाई से विवाह करना पड़ता था। यह उस वैवाहिक परम्परा यद्यपि जन संस्कृति निवृत्ति का मार्ग प्रशस्त समय की स्थिति है जब लोग अपनी कन्याए करती है, किन्तु फिर भी उसमें सांसारिक व्यवस्था अज्ञात कुलों में भेजना पसन्द नहीं करते थे। सम्बन्धी सामग्री भी कम नहीं मिलती। गृहस्थ ऋषभ देव ने अपनी बहिन से शादी का प्रस्ताव जीवन का प्रारम्भ विवाह के बाद होता है। विवाह रखा था। पुष्पफेतु ने अपने पुत्र और पत्री का दो विषम लिगियों के पारस्परिक उस महत्वपूर्ण परस्पर में स्वयं विवाह किया था। यह प्रथा समझौते का नाम है जिसमें दोनों एक दूसरे के बाद में बौद्धिक विकास के साथ-साथ लप्त होकर बंध जाते हैं। कन्या विवाह के लिये पूर्ण हो गई। स्वतन्त्र थी। उसे पिता तथा अन्य व्यक्तियों की कभी कभी कन्यानों को विवाह के बाद भी रुचि के अनुसार बाध्य नहीं होना पड़ता था। यदि घर पर रहना पड़ता था। माता-पिता को स्थिति वे चाहती थीं तो उन्हें सम्पूर्ण जीवन क्वारा बिना यदि अच्छी नहीं होती थी अथवा वर की आर्थिक देने के लिये समाज की पोर से स्वीकृति थी। स्थिति कमजोर होती थी तो लड़की माँ-बाप को ब्राह्मी, सुन्दरी, चन्दना, जयन्ती प्रादि वे प्रमुख छोड़कर नहीं जाती थी। अपने पति को पर १. प्रादिपुराण पर्व ७ २. पावश्यक चूणि २, पृष्ठ ५७-६० ३. सागर धर्मामृत २ अ. श्लोक ५६-६० ४. उमुक्क बालभावे, गवंगसुत्त-पडिवोहिए, प्रलं भोग समस्थे । ज्ञाताधर्मकथा मादि ५. पावश्यक चूणि २, पृष्ठ १७८
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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