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________________ बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रन्थ १५० 'यही नहीं, मेघातिथि के काल में शूद्रों की सामाजिक स्थिति और उनका व्यवसाय सद्भावना की दृष्टि से देखा गया है । मेधातिथि और विश्वरूप दोनों ने यह आधार लिया है कि शूद्र न सेवक बनाए जा सकते हैं, न ब्राह्मण पर निर्भर किए जा सकते हैं । वे व्याकरण तथा अन्य विद्याओं के शिक्षक हो सकते हैं, स्मृतियों द्वारा निर्दिष्ट उन सभी कृत्यों को सम्पन्न कर सकते हैं, जो ग्रन्य वरणों के लिए हैं । १ अतः यह समीक्षा डा० घोषाल के मत का स्वयं खंडन कर देती है तथा मध्यकालीन शूद्रों की स्थिति और समाज में उनके स्थान की उच्चता दिग्दर्शित करती है । ર प्राचार्य हेमचन्द्र ने कुम्हार, नापित, बढ़ई, लोहार, तन्तुबाय- बुनकर, रजक धोबी, तक्ष, प्रयस्कार, प्रादि वर्ग के लोगों को शुद्र के अंतर्गत माना है । उनके अनुसार शूद्रों के छह नाम थे, शूद्र, अन्य वर्ण, वृषल, पद्यः, पज्जः श्रौर जघन्यज । 'प्राभीर' जाति को हेमचन्द्र ने 'महाशूद्र' कहा है। कात्यायन ने भी 'महाशूद्र' स्वीकार किया है । इस प्रकार शूद्रों में भी महाशूद्र थे, जो सम्भवतः शक, हूरण और यवन जैसी विदेशी जातियों के लोगों की तरह थे । 3 * ५ अन्य निम्न जातियां ६ ७ इन चार कणों के अतिरिक्त समाज में धीर भी अनेक जातियां थीं, जो इन वर्गों की अपेक्षा निम्न थीं, जिनका कार्य भी निम्न था प्राचार्य हेमचन्द्र ने प्रधानतः तेरह जातियां बताई हैं, जो अनुलोम-प्रतिलोम के कारण बनी थीं, जिन्हें वे मिश्र जाति कहते हैं । मिश्र जातियां ये थीं। "मूर्धावसिक्त, अम्बष्ठ, पराशय, निषाद, माहिष्य, उग्र, करण, प्रायोगव, क्षता, चण्डाल, मागघ, वैदेहक, सूत भौर रथकारक । ऐसी जातियों के विषय में अपरार्क का कथन है कि चांडाल, पुक्कस, भिल्ल, पारसी, महापातकियों से छू जाने पर सवस्त्र ( सचैल ) स्नान करे । 5 अतः इस कथन से स्पष्ट होता है कि ये जातियां अस्पृश्य थीं । आचार्य हेमचन्द्र ने "धोबी" को "शूद्र" के अंतर्गत रखा है जबकि संवर्त का कथन है कि कैवर्त (वे. बट या मल्लाह), मृगयु (मृग मारने वाला), व्याध ( बहेलिया), शौनि (कसाई), शाकुनिक (चिड़ीमार ) तथा रजक (धोबी) प्रस्पृश्य हैं। अलबरूनी ने इन प्रस्पृश्य जातियों के प्राट वर्ग बताए हैं। धोवी, मोची, मदारी, टोकरी, मौर ढार बनाने वाले, माझी (नाविक ) मछुम्रा ( मछली मारने वाले), पशु-पक्षी हिंसक और बुनकर। वह १. मेधातिथि - मनु० ३.६७, १२१, १५६, १०. १२७ । २. सिद्धहेमशब्दानुशासन, ६।१।१०२ । ३. शूद्रोऽन्त्यवर्णो वृषलः पद्यः पज्जो जघन्यजः । अभिधानचिन्तामणि, ३८६४ । ४. ' कथं महाशूद्रो - श्राभीजाति: नात्र शूद्र शब्दो जातिवांची कि तहि महाशूद्रशब्दः । यत्र तु शूद्र एव जातिवाची तत्र भवत्येव डीनिषेध: । महती चासौ शूद्रा च महाशूद्रेति सिद्ध हेमशब्दानु शासन, २|४|५४ । ५. ४११७४ | . Some Aspects of Indian Culture on the Eve of Muslim Invasions, pp. 40, 111-17. ७. श्रभिधानचिंतामणि, ३. ८६४-६६ । ८. प्रपरार्क, पृ० २६३ । ९. सवत- वही, पृ० ११६६ ।
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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