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________________ प्राचार्य हेमचन्द्र की दृष्टि में भारतीय समाज - १४६ के दो वर्ग थे, पात्र या पौर अपात्र या । जो शूद्र रखकर 'प्रार्य' हो सकते थे। अगर ऐतिहासिक अभिजात्य वर्ग के बर्तनों में भोजन-पान कर सकते तथ्यों को देखा जाय तो प्राचार्य हेमचन्द्र का कथन थे तथा मांजने से वर्तन शुद्ध हो जाते थे,' वे सर्वाशतः खरा उतरता है । गिरि-पश्चिम शासन पान या नाम से संबोधित किए गए। पौर जो के दुर्जय परिवार और वेलनांहु के प्रधान, महाशूद्र इस योग्य नहीं थे वे अपात्र या कहे गए। मंडलेश्वर पद तक पहुंच गए थे, जो शूद्र थे । । शूद्रों के विषय में सम्राट् भोज का विकल्प है कि यद्यपि डा० घोषाल का यह मत है कि इस काल ने मान का ख्याल न करने वाले, पूर्ण रूप से (१०००ई० से १३०० ई.) की कृतियां और पवित्र न रहने वाले, चुगलखोर और धर्म से विरत टीकाएं शूद्रों के व्यवसाय और स्तर के सम्बन्ध में रहने वाले शूद्र जाति के अंतर्गत हए। कौशल पुराकालीन स्मृतियों का अनुसरण करती है। दिखाकर, मुख से विशेष प्रकार की आवाज निकाल परन्तु यह कथन पूर्णतः एकांगी है। इस सर कर. कारीगरी और पश-पालन से जीविका चलाना में प्रोफेसर डा. बुद्ध प्रकाश ने लक्ष्मीवर का तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य-तीनों वर्ण की सेवा उद्धरण देते हुए इस मत की स्थापना की है कि करना उनका प्रधान धर्म है । २ भोज के इस शुद्ध मस्तिष्क वाला ( अथवा सचरित्र) शा. कथन से स्पष्ट होता हैं कि जो शूद्र मानी और भ्रष्ट ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य से अच्छा पवित्र थे तथा धर्म-पालन करते थे, वे शूद्र वर्ग से था । ७ निश्चय ही इस युग के लेखकों ने ऊंचे रहते थे। प्राचार्य हेमचन्द्र ने भी इस पर पुरानी लीक का अनुसरण न कर युग की मांग का विचार किया है। उनका यह दृढ़ मत है कि समर्थन किया है। जैसा कि ऊपर निर्दिष्ट किया शीलवान व्यक्ति ही 'प्रार्य है। जो व्यक्ति गया है प्राचार्य हेमचन्द्र और सम्राट् भोज का ज्ञान, दर्शन और चरित्र रखता है, वही भार्य यह मत है कि शूद्र पवित्रता, धर्मानुसरण, ज्ञान, है । इस प्रकार शूद्र भी इन्हीं गुणों को और दर्शन से 'मार्य' पद को प्राप्त कर सकता है। १. "यभुक्त पात्र संस्कारेण शुद्धयति ते पात्रमहन्तीति पात्र याः", वही, ३।१।१४३ । २. नातिमानभृतो नाति शुचयः पिशुनाश्च ये। ते शूद्रजातयो जाता नाति धर्मरताश्चये । कलारम्भोपजीवित्यं शिल्पिता पशुपोषणम् । वर्णात्रितयशुश्रुषा धर्मस्तेषामुदाहृतः ॥ समरांगणसूत्रधार, ७. १५ १६ । ३. 'शीलमस्माकं स्वम्'-सिद्धहेमशब्दानुशासन, २।१।२१ । ४. 'प्रर्यति गुणान् प्राप्नोतीति मार्यः' । वही । %. Ganguly, D. C.: The Eastern Calukyas, p. 170 ६. "The description of Sudra's occupation and Status in the come ntaries and digests of this period followed the old Smriti lines.” The Struggle for Empire p. 475. ७ "Inspite of these caste-complexes, the position of the lower classes improved during this period. Laksmidhara held that a pure-minded Sudra was better than a notorious Brahmana, Ksatriya or Vaisya. Some Aspects of Indian Culture on the eve of Muslim Invasions. p. 39.
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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