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श्रद्धास्पद बाबू जी
नीरज जैन
जात पाठ वर्ष पहले की बात है। पूज्य वर्णी जी शारदा प्रसाद जी से जब इसकी चर्चा हुई तब बाब
"की जयन्ती पर उनकी चरण रज लेने हम लोग छोटेलाल जी का मानों एक नया ही परिचय मुझे ईसरी गये थे। जब तक बाबा जी ईसरी प्राथम में मिला। इसी बीच भाई अमरचन्द के माध्यम से कुछ रहे तब तक प्रतिवर्ष उनके जन्म दिन पर एक अच्छा और उन्हें जाना और कलकत्ता में जब पहली बार खासा मेला वहाँ लग जाता था। उस वर्ष भी उनके घर जाने का अवसर मिला उसके पूर्व ही भक्तों की भीड़भाड़ खूब थी और एक बड़े तथा उनके स्नेह को धारा का प्रवाह मेरे मन को छू चुका सज्जित पण्डाल में सभा का आयोजन था। था। स्नेह की यह सरिता बाबू जी के पास से धारा
प्रवाह होकर बहती ही रहती थी। न जाने कितना रात्रि में उसी स्थान पर जैन तीर्थों के सिनेमा गम्भीर था वह अजस्र स्रोत जो इतनी प्रात्मीयता, स्लाइड दिखाये जाने की योजना की गई और उसी
अनुकम्पा और सद्भाव का उद्गम बना उनकी कार्यक्रम में सर्वप्रथम श्रीमान बाबू छोटेलाल जी का
दूवरी देह के किमी कोने में छिपा था । उसके माधुर्य दर्शन मुझे प्राप्त हया। वे प्रोजेक्टर पर स्लाइड
का, उसकी शीतलता का अनुभव मेरे जैसे अनेक दिखलाते थे और उनका विवरण ध्वनि-विस्तारक
कृपा पात्रों को समय-समय पर होता रहता था। पर प्रस्तुत करते जाते थे । देश के अनेक प्रसिद्ध
पूज्य वर्गी जी के अयमान के कुछ समय पूर्व और अप्रसिद्ध तीर्थस्थानों की सुन्दर और महत्त्वपूर्ण
रक्षा-बन्धन के दिन की बात है। मैं मकुटुम्ब ईसरी विविध शिल्प सामग्री की एक संक्षिप्त परन्तु अविस्मरणीय झाँकी उस दिन देखने को मिली। बाबू
में था। बाबू जी पहिले से वहाँ बाबा जी की मेवा
में मंलग्न धे। बच्चों ने सावन का पर्व मनाया और छोटेलाल जी की प्रसिद्धि और उनके नाम के
बिटिया की एक राखी मेरो कलाई तक पहुंच गई। "बात" शब्द का प्राधार लेकर उनकी बहुत 'टिप
हम मव मगन थे पर मरी पलली कुछ न्यूनता का टाप' और भारी-भरकम शरीर को कल्पना मैने कर
अनुभव कर रही थी। वाचू जी की अनुभवी दृष्टि से रखी थी, पर उसके एकदम विपरीत इकहरी देह पर
उसकी वह उदामी छिपी न रह सकी और एक साधारण धोती कमीज का पहिरावा और प्रगाघ
प्यार भरा प्रादेश देकर तत्काल उन्होंने मेरी पत्नी ज्ञान-गरिमा के बावजूद अत्यन्त सहज और नम्रता
में न केवल राखी बंधवाई वरन् उचित सम्बोधन भरा व्यवहार पाकर मुझे कुछ और ही अनुभव
देकर उसकी अनमनस्कता भी दो ही क्षण में दूर हुमा। उस वर्ष उनको व्यस्तता (या अपनी परवशता) के कारण यद्यपि वह परिचय परोक्ष ही
करदी। एक बार भाई प्रमरचन्द सतना मा रहे थे।
उनके हाथ बाबु जी ने हम लोगों के लिये कलकत्ता रहा परन्तु श्रद्धास्पद व्यक्तियों की तालिका जो मेरे मानस-पटल पर थी उसमें यह एक नाम और उस
से कुछ ग्राम भेजे । बनाया गया कि बड़ी रुचि
पूर्वक दो तीन प्रकार के ग्राम स्वयं पसन्द करके दिन अंकित हो गया।
उन्होंने खरीदे थे और न केवल उन ग्रामों के नाम सतना लौटकर रामवन प्राश्रम के संस्थापक वरन् उनके पकने के हिसाब से उन्हें उपयोग में लाने और विन्ध्य-क्षेत्र के एकमेव पुरातत्यान्वेषक बाबू के लिये दिन तथा तारीखों तक की हिदायत उनके