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________________ बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ करना था। प्रतः हेमचन्द्र द्वारा निर्दिष्ट है। किन्तु, 'सभाश्रश्रृंगार' नामक ग्रंप से "क्षत्रिय" वर्ग के पुरुषार्थ का भाष्य भोज के उपरि- राजपूत क्षत्रियों के छतीस वर्ग मिलते हैं । जो इस लिखित कथन से भले प्रकार हो जाता है । एक प्रकार हैं : “परमार, राठौर, चौहाण, (चौहान स्थल पर प्राचार्य हेमचन्द्र ने क्षत्रियों के पांच नाम या चाहमान), गहिलोत (गिहलोत) दहिया, सेवा, दिए हैं, जो इस प्रकार हैं- "क्षत्रम्, क्षत्रिय, राजा, बोरी, बगछा, सोलंकी, सीसोदिया, खेरमारी, राजन्य और बाहु संभव । २ लेकिन इतना नाकुभ, गोहिल, चावड़ा, झाला. छूर, कागवा, अवश्य है कि क्षत्रिय वर्ग का मुख्य कार्य प्रजा और जेठवा, रोहर, वस, बोरड़. खोची, खरवड़, शासन की देखभाल करना था। इस सम्बन्ध में डोडिया, हरिपड़, डाभी, तंभर, कोरड़, गोड, भरवयात्री अलबीरूनी का कथम युक्तियुक्त है:- मकवाड़ा, यादब, कछवाहा, माटी, सोनिगरा. "क्षत्रीय वेद को पढ़ता है पढ़ाता नहीं । वह यज्ञ देवड़ा, चंद्रावत । " ये छत्तीस, राजकुल थे जो करता है, पुराणों के नियमानुसार पाचरण करता भारत के विभिन्न प्रदेशों में निवास करते थे। है। वह प्रजा पर शासन करता है और उनकी रक्षा ऊपर के विश्लेषण से स्पष्ट है कि हेमचन्द्र के करता है। क्योंकि वह इसी निमित्त पैदा किया समय क्षत्रियों का प्रधान कर्म पूर्व-निर्दिष्ट था तथा गया है। ३ देश के विभिन्न भागों में वास करने से उनके विभिन्न प्राचार्य हेमचन्द्र ने विभिन्न प्रदेशों में रहने नाम हो गए थे, जो कालांतर में जाकर अनेक वाले क्षत्रियों को प्रदेश नाम के साथ जोड़ कर श्रेणियों में हो गए तथा उसी प्रकार उनके नाम नवीन माम दिया है। उनके अनुसार मगध में भी परिवर्तित हो गए। "मागघ जाति" के क्षत्रिय वास करते थे। ४ इसी प्रकार यौधेय, मालव, पांचाल आदि जाति के वेश्य क्षत्रिय उस प्रदेश में बसते थे । हेमचन्द्र ने भारतीय समाज में राष्ट्र की अर्थनीति "इक्ष्वाकु वंश के क्षत्रियों को "मादि क्षत्रिय" माना व्यापार-प्रणाली का सर्वथा भार वैश्यों के हाथ है। भोज परमार के नाम पर मालवा के था। देश और समाज की प्रार्थिक स्थिति को सात परमार क्षत्रियों को इन्होंने 'भोजवंशजा' माना और सुसंगठित बनाने के लिए वैश्य वर्ग को नियोजित १. येतु शुरा महोत्साहाः शरण्या रक्षण क्षमाः ॥ हव्यायत देहाश्च क्षत्रियास्तु इहाभवन् । विक्रमोलोकसरक्षा विभागो व्यवसायिता ।। समरांगणमूत्रधार, ७. ११-१२। २. 'क्षत्र तु क्षत्रियों राजा, राजन्यो वाहुसंभवः' । अभिधानचिन्तामणि, ३.८६३। ३. तहकीक-मालि-हिंद, पृ० २७४ । ४. 'मगधानां राजा, मगधस्यापत्यं वा मागधः-' सिद्धहेमशब्दानुशासन, ६।१।११६॥ ५. 'इक्ष्वाकुः आदि क्षत्रियः'-उरणादिसूत्रवृत्ति, ७५६ । ६. 'भोज्या-भोजवंशजा क्षत्रियाः'-सिद्धहेमशब्दानुशासन, २।४।१। ७. सभाशृंगार, पृ० १४६॥ नोट:-कल्हण ने अपनी “राजतरंगिणी" (७.१६१७) में भी राजपूतों के ३६ कुलों का निर्देश किया है, जिससे स्पष्ट होता है कि ये 'कुल' १२ वीं सदी के बहुत पहले सर्वविदित थे।
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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