SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य हेमचन्द्र की दृष्टि में भारतीय समाज किया गया था। प्रतः राष्ट्र के पार्थिक व्यवहार वैश्य का धर्म है कि खेती करे, भूमि को जोते, पशु का संचालन वश्य करते थे। पाले पोर ब्राह्मणों की प्रावश्यकता को पूरी प्राचार्य हेमचन्द्र ने "वैश्य" के लिए "प्रयं" करे । ७ वैश्यों के व्यापार करने का निर्देश शब्द का प्रयोग किया हैं। उनका यह शब्द अलबीरूनी ने नहीं किया है । अलबीरूनो के पूर्ववर्ती प्रयोग. पाणिनि के प्राधार पर है। पाणिनि ने भी भरवलेखक इनखुर्दाग्बा ने वैश्यों को कारीगर और "वश्य" के लिए "भयं" व्यवहत किया है। २ घर-गृहस्थी के कार्यों में निपुण बताया है । ८ ऐसा प्रतीत होता है कि हेमचन्द्र ने पाणिनि के हेमचन्द्र से कुछ ही पहले होने वाले परबलेखक तत्संबंधी सत्र को थोड़े परिवर्तन के साथ ग्रहीत कर मल-इदरीसी ने वैश्यों को कला-कौशल में निपुण लिया। हेमचन्द्र ने वैश्यों के छः नाम दिए हैं। "मर्या. तथा मिस्री निर्दिष्ट किया है। प्रतः स्पष्ट भमिस्पर्शः, वैश्या, ऊरव्या ऊरुजाः पौर विशः।। है कि प्राचार्य हेमचन्द्र के काल तक पाते-पाते इस प्रकार स्पष्ट है कि हेमचन्द्र के काल तक वैश्यों वैश्यों के कर्मों में काफी परिवर्तन होता गया। के लिए उपरिलिखित छहों नाम प्रचलित थे। केवल व्यावसायिक कार्य से ही वे सम्बद्ध थे। वैश्यों का प्रमुख कार्य था, पशुञों की रक्षा हेमचन्द्र ने व्यापार करने वाले वैश्यों को पाठ करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना, व्याज प्रकार का बतलाया है : “वारिगजः, वणिक, लेना और खेती करना । इस सम्बन्ध में क्रयविक्रयिक, पण्याजीबी, भापणिक, नैगमः, हेमचन्द्र का कथन है कि वाणिज्य, पशुपालन और ऋयिक, पौर क्रयी। १० वस्तुए खरीदने वालों कृषि वैश्यों को प्रधान वृत्तियां हैं। उन्होंने को उन्होंने तीन नाम दिए हैं, क्रायक, ऋयिक और इनके छह आजीविका का भी निर्देश किया है, क्रयी।" इसी तरह तीन नाम वस्तुएं बेचने जो इस प्रकार है 'प्राजीव, जीवनम, वार्ता, जीविका, वाले को भी दिए हैं : विक्रायक, विक्रयिक पौर वृत्ति और वेतन । ६ प्रलबीख्नी का कथन है कि विक्रयी १२ । १. 'स्वामिवश्येऽर्य:'-सिरहेंमशब्दानुशासन, ५११। ३३ । २. अर्यः स्वामि वैश्ययो - पाणिनि०, ३. १०. १०३। ३. "प्रर्या भूमिस्पशों वैश्या, ऊरव्या ऊरुजा विश:'-प्रभिधान चिन्तामणि, ३.८६४ । ४. मनु० १६०. को० म०, १.३७, शुक्र० १.४२ । ५. "वाणिज्यं पाशुपाल्यं च, कर्षण चेति वृत्तयः । “मभिधान चिन्तामणि, ३.८६४ । ६. 'प्राजीवो जीवनं वार्ता, जीविका वृत्ति वेतन-वही, ३.८६५ । ७. तहकीक-मालिल्-हिंद, पृ० २७१ ।। ८. E., Vol. II, p. 16. ६. Ibid., p. 76. १०. 'सत्यानृतं तु वारिणज्यं वाणिज्या परिणजो वणिक । क्रयविक्रयिकः पण्याजीवाऽऽपरिणकनंगमाः ॥ अभिधानचिन्तामणि, ३.८६७ । ११. वही ३.८६८ । १२. वही ।
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy