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________________ १६२ बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रन्थ मादि का निर्माण किया गया है । इनका वैमव चतुर्विध संघ को दान में सदा तत्पर रहता था। राजापों के सदृश रहा है। शाही खजांची, मन्त्री, उस समय दिल्ली के जैमियों में वह प्रमुख था, सलाहकार प्रादि अनेक उच्च पदों पर ये नियुक्त व्यसनादि से रहित हो श्रावक के व्रतों का अनुष्ठान रहे हैं । शास्त्रदान में इनकी रुचि रही है । उसीका करता था। साहु नट्टल केवल धर्मा मा ही नहीं परिणाम है कि दिल्ली के ग्रन्थ भंडारों में ग्रंथों था पपितु उच्चकोटि का व्यापारी भी था। उस का अच्छा संग्रह पाया जाता है। वीर सेवा मदिर, समय उसका व्यापार मंग, बंग, कलिङ्ग, कर्नाटक, पारा का जैन सिद्धांत भवन, मोर भारतीय शान नेपाल, भोट, पांचाल, चेदि, गौड़, ठक्क (पंजाब) पीठ काशी, तथा दिल्ली का पक्षियों का हस्पताल केरल, मरहट्ट, भादानक, मगध, गुर्जर, सोरठ पौर मादि संस्थाएं प्राज भी गौरव का विषय बनी हुई हरियाना प्रादि देशों और नगरों में चल रहा था। हैं । साहित्यिक संस्थानों से जो साहित्य प्रकाशित यह केवल व्यापारी ही नहीं था; अपितु राजनीति हुप्रा है, या जो अनुसन्धान काम किया गया है वह का चतुर पंडित भी था। कुटुम्बी जन तो नगर अपने विषय का महत्वपूर्ण कार्य है। इस सबसे जन सेठ थे और पाप स्वयं तोमरवंशी अनंगपाल साधारण अग्रवालों की धर्मप्रियता श्र तसेवा प्रादि (तृतीय) का प्रमात्य था । मापने कवि श्रीधर से का परिचय सहज ही पा सकते हैं। जन अग्रवालों जो हरियाना देश से यमुना नदी को पार कर उस ने जैन धर्म को क्या देन दी है अथवा उसके विकास समय दिल्ली में पाए थे प्रन्थ बनाने की प्रेरणा में क्या कुछ योग दान दिया है यही इस लेख का की पो। तब कवि ने 'पासणाह चरिउ' नामक प्रमुख विषय है। सरस खण्ड काव्य की रचना वि० सं० १९८९ अगहन वदी अष्टमी रविवार के दिन समाप्त संवत् ११८६ ( सन् ११३२ ई० ) से पूर्व साहु की थी। नटल के पूर्वज पिता वगैरह दिल्ली (योगिनीपूर) के निवासी थे। इनकी जाति अग्रवाल थी। नट्टल नट्टल साह ने उस समय दिल्ली में प्रादिनाथ साह के पिता साह जेजा श्रावकोचित धर्म-कर्म का एक प्रसिद्ध जैन मन्दिर भी बनवाया था. जो में निष्ठ थे। इन की माता का नाम 'मेमडिय' था. प्रत्यन्त सुन्दर था, जैसा कि अन्य के निम्न वाक्यों जो शील रूपी सत् प्राभूषणों से अलंकृत थी, पौर से प्रकट है :वांधवजनों को सूख प्रदान करती थी। साहु नट्टल "कारा वेविणाहय हो शिकेर के दो ज्येष्ठ भाई और भी थे, राघव और सोढल । पविइणा पंच वणं सुकेउ । इनमें राघव बडा ही सुन्दर और रूपवान् था। पइं पण पइट्र पविरइय जेम, उसे देखकर कामनियों का चित्त द्रवित हो जाता पास हो चरित्त जइ पुग्ण वि तेम ॥" था । और सोढल विद्वानों को मानन्द दायक, गुरुभक्त तथा प्ररहंत देव की स्तुति करने वाला था. प्रादिनाथ के इस मन्दिर को उन्होंने प्रतिष्ठा उसका शरीर विनयरूपी प्राभूषणों से अलंकृत था, विषि भी की थी, उस प्रतिष्ठोत्सव का उल्लेख तथा वह वड़ा बुद्धिमान और धीर-वीर था । साह उक्त ग्रंथ की पांचवीं संधि के बाद दिये हुए निम्न नट्टल इस सब में लघु, पुण्यात्मा, सुन्दर और जन पच से प्रकट है :बल्लभ था । कुलरूपी कमलों का पाकर पोर पाप- येनाराध्य विशुद्धघ धीरमतिना देवाधिदेवं जिनं । रूपी पांशु (रज) का नाशक, तीर्थंकर का प्रतिष्ठा- सत्पुण्यं समुपाजितं निजगुणैः सन्तोलिता बान्धवाः । पक, वन्दीजनों को दान देने वाला, परदोषों के जैन चैत्यमकारि सुन्दरतरं जैनी प्रतिष्ठा तथा, प्रकाशन से विरक्त, रत्नत्रय से विभूषित और स श्रीमान्विदितः सदैव जयतात्पृथ्वीतने नमः ।।
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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