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________________ अग्रवालों का जैन धर्म में योगदान • परमानन्द जैन शास्त्री 'अवाल' शब्द का विकास प्रग्रोहा या प्रग्रोदक से हुआ है । वर्तमान हिसार जिले में अग्रोहा नामक एक प्राचीन ऐतिहासिक नगर था । यहां एक टीला ६० फुट ऊंचा था, जिसकी खुदाई सन् १९३९ या ४० में हुई थी। उससे प्राचीन नगर के अवशेष और प्राचीन सिक्कों प्रादि का ढेर प्राप्त हुआ था । २६ फूट से नीचे ग्राहत मुद्रा का नमूना, चार यूनानी तिक्के और ५१ चौलूटे तांबे के सिक्के भी मिले थे। तांबे के सिक्कों में सामने की ओर 'वृषभ' और पीछे की ओर सिंह या चैत्यवृक्ष की मूर्ति अंकित है। सिक्कों के पीछे ब्राह्मी प्रक्षरों में- 'प्रगोद के प्रगच जनपदस' शिलालेख भी अंकित है, जिसका अर्थ 'प्रग्रोदक में मगच जनपद का सिक्का' होता है । अग्रोहे का नाम मोदक भी रहा है। उक्त सिक्कों पर अंकित वृषभ, सिंह या चैत्य वृक्ष की मूर्ति जैन मान्यता की ओर संकेत करती हैं । कहा जाता है कि अग्रोहा में अग्रसेन नाम के एक क्षत्रिय राजा थे। उन्हीं की सन्तान परम्परा अग्रवाल कहे जाते हैं । अग्रवाल शब्द के मनेक पर्थ हैं किन्तु यहां उन ग्रथों की विवक्षा नहीं हैं, यहां प्रदेश के रहने वाले प्रर्थ ही विवक्षित है । अग्रवालों के १८ गोत्र बतलाये जाते है, जिनमें गर्ग, गोयल, मित्तल, जिन्दल, सिंहल या संगल प्रादि नाम हैं। इनमें दो धर्मों के मानने वाले पाये जाते हैं। एक जैन अग्रवाल दूसरे भजैन म्रवाल । श्रीलोहा चार्य के उपदेश से उस समय जो जैन धर्म में दीक्षित हो गए थे, वे जैन भग्रवाल कहलाये श्रौर शेष प्रजैन । परन्तु दोनों में रोटी-बेटी व्यवहार होता है, रीति१. एपिग्राफिका इंडिका जि० २ ० २४४ । व मोतक वैश्यों का वर्णन दिया हुआ है । रिवाजों में बहुत कुछ समानता होते हुए भी उनमें अपने अपने धर्म परक प्रवृत्ति पाई जाती है। हां सभी अहिंसा धर्म के मानने वाले हैं। यद्यपि उपजातियों का इतिवृत १० वीं शताब्दी से पूर्वका नहीं मिलता पर लगता है कि कुछ उपजातियाँ पूर्ववर्ती भी रही हैं । जैन अग्रवालों में अपने धर्म के प्रति विशेष श्रद्धा एवं प्रास्था पाई जाती है, उससे उनकी धार्मिक दृढ श्रद्धा का सम धंन होता । प्रग्रवालों के जैन परम्परा सम्बन्धी १२ वीं शताब्दी तक के प्रमाण मेरे अवलोकन में भाए । यह जाति पूर्व काल में खूब सम्पन्न, राज्य मान्य और धार्मिक रही है। और वर्तमान में ये लोग धर्मश प्राचार निष्ठ, दयालु और जनधन से सम्पन्न पाये जाते हैं । अग्रवालों का निवास स्थान अग्रोहा या हिसार के पास-पास का ही क्षेत्र नहीं रहा है, अपितु उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली श्रीर उसके पास-पास के क्षेत्र भी रहे हैं क्योंकि अग्रवालों द्वारा निर्मित मन्दिर, उदयपुर, जयपुर प्रादि स्थानों में भी पाये जाते हैं। फरिणपद या परिणपद (पानीपत), refrपद प्रथवा सुवरण पथ, सोनिपत कर्नाल, अम्बाला, सहारनपुर, मुजफ्फर नगर, मेरठ, आगरा दिल्ली, धारा, कलकत्ता, नजीबाबाद और बनारस प्रादि बड़े नगरों एवं छोटे छोटे उपनगरों में इस जाति के लोग बसे हुए हैं । इससे इस जाति की महता का भान स्वतः हो जाता है । अग्रवाल जैन समाज द्वारा अनेक मन्दिरों, मूर्तियों, विद्या संस्थानों, प्रौषधालयों, लायब्रेरियों और साहित्यिक संस्थानों इंडियन एण्टीक्वेरी भाग १५ के पृष्ठ ३४३ पर
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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