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________________ बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रन्थ Ge या और संभव है इसी कारण उसे गोदावरी के प्रदेशों से सम्बन्ध स्थापित करना पड़ा हो । इस ग्रंथ में बरिंगत एक धम्म घटना राजगिरिदुर्ग १४ की विजय है । यह ग्राम-नागावलोक की अंतिम विजय थी । राज गिरिदुर्ग एक दुर्भेद्य किला था जिसे जीतने के लिये नामावलोक को बहुत पत्न करने पड़े थे । उसके पौत्र भोज के जन्म के बाद हो वह उसे जीतने में समर्थ हो सका था । इस राजगिरिदुर्ग की स्थिति एक विवाद्य विषय है । प्रस्तुत लेखक ने अन्य यह करने की चेष्टा की है कि इस राजगिरिदुर्ग का समीकरण ग्वालियर प्रशस्ति में उल्लिखित राजगिरिदुर्ग से हो सकता है जो संभवतः पंजाब में था मोर घरब इतिहासकार अलबरूनी द्वारा उल्लिखित है । यह संभव है कि इस गिरिदुर्ग की विजय ग्राम नागावलोक ने अपने साम्राज्य की सुरक्षा के लिये की हो क्योंकि जैसा कि इस समय के अभिलेखों से विदित होता है उत्तरी पश्चिमी सीमा पर अरबों के आक्रमण हो रहे थे और प्रतिहारों ने उन्हें रोक कर देश की रक्षा की थी। ग्वालियर प्रशस्ति में भी नागभट की विजयों में सैन्धव और तुरुष्क की विजय वरित है । स्कन्दपुराण १६ से हमें म्लेच्छों के शासन का पता चलता है। इसके अनुसार ब्रह्मावर्त तक ग्राम-नागावलोक के प्रभाव की भी जानकारी प्राप्त होती है। वहां का राजा कुमारपाल ग्राम का जामाता था और उसके समय में पंजाब में जैनधर्म का प्रभाव बढ़ रहा था । बप्पभट्टिरित से ज्ञात होता है कि गोपागिरि १७ (गोपालनिरि) या ग्वालियर ग्राम-नागावलोक के अधिकार में था। एक दूसरे जैन लेखक राजशेखरसूरि के प्रबन्धकोश से भी इस बात की पुष्टि होती है । मिहिर भोज की ग्वालियर प्रशस्ति से उस प्रदेश का उसके अधिकार में रहना सिद्ध है । संभव है वह उसके पितामह नागभट के भी अधिकार में रहा हो। इसी ग्रंथ के अनुसार ग्राम नागावलोक का पुत्र दुन्दुक था। ग्वालियर प्रशस्ति में उसका नाम रामभद्र दिया हुआ है । सम्भव है रामभद्र का दूसरा नाम दुन्दुक रहा हो। नाम में होने पर भी उसकी प्रयोग्यता के विषय में पट्टिकर और अभिलेख एकमत हैं । १ इसके दुराचारी शासन में दूर के प्रदेश साम्राज्य से अलग हो रहे थे और शत्रुनों के प्राक्रमरण हो रहे थे। उसके पुत्र मिहिर भोज ने इस प्रव्यवस्था को दूर कर शासन किया। इस ग्रंथ के अनुसार भी भोज ने अपने पितामह नागावलोक से भी अधिक प्रदेश जीते, भ्रष्ट राज्यों पर अपनी प्रभुता फिर से स्थापित की । १६ उपरोक्त विवेचन से वह स्पष्ट है कि बप्पभट्टिचरित् भी प्राचीन भारतीय इतिहास की जानकारी के लिये कितना महत्वपूर्ण साधन है । इसकी उपादेयता प्रभिलेखों और दूसरे साहित्यिक प्रमाणों से इसके तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाती है । १४. बप्पभट्टिचरित || श्लो० ६६१-६७५ । १५. नागरी प्रचारिणी पत्रिका, संव० २०२१, अंक ० १ २, पृ० १८२-८३ । अखिल भारतीय प्राच्य परिषद्-गौहाटी अधिवेशन 'सारांश' । - १९६४ १६. स्कन्दपुराण, ब्राह्मखंड धर्मारण्य महात्म्य, श्लो० ३१ । १७. तथा गोपगिरी लेप्यमयविम्वयुतं नृपः ! श्री वीरमंदिर तत्रत्नयोविंशतिहस्तकम् ॥१४०॥ १८. एडि० इंडि० भा० १६, पृ० १६-१६, भा० ५, पृ० २१३, बप्पभट्टिचरित, पृ० १०६ - ११० । १६. भोज राजस्ततो नेक - राज्यभ्रष्टग्रहः । ग्रामादप्याधिको जश जैन प्रवचनोन्नती ॥७६५॥
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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