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________________ arrafट्टचरित' : ऐतिहासिक महत्व है | उस युग की इस महत्वपूर्ण घटना को विस्मृत कर देना किसी भी प्रतिभाशाली लेखक के लिये संभव नहीं था । बप्पभट्टिचरित में बंगाल के राजा धर्मपाल प्रोर कन्नौज के ग्राम नागावलोक के बीच चिर शत्रुता का संकेत है । 8 इसका उपयोग भी जैन सिद्धान्तों की सर्वोच्चता दिखाने के लिये करना था इसीलिये सम्भवतः यह संघर्ष इस ग्रंथ में धर्मपाल के सभा पंडित सौगताचार्य वर्धन कुंजर और जैनाचार्य बप्पभट्ठि के बीच दार्शनिक यादविवाद का स्वरूप धारण कर लेता है ।" विजय अंत में बणभट्ट की होती है। प्रतिहार शासक बाउक की जोधपुर प्रयास्ति से ज्ञात होता है कि उसके पूर्ववर्ती शासक कवक ने मुद्गगिरी में गौड़ों को परास्त कर यश प्राप्त किया था। ११ यह शासक सम्राट नागभट का समकालीन मौर प्रधीन शासक प्रतीत होता है। उसके लिये धकेले ७३ हो गौड़ों को हराना सम्भव नहीं जान पड़ता सम्भवतः उसने अपने सम्राट् नागभट की भोर से पालों के विरूद्ध संघर्ष में भाग लिया हो । ऊपर वारंगत दार्शनिक वाद-विवाद भी दोनों राज्यों की सीमा पर हुआ था। क्या यह संकेत मुद्गगिरि के संघर्ष की ओर नहीं ? इस विवाद के परिणाम स्वरूप धर्मपाल को पराजय वरित है। ग्वालियर प्रशस्ति १२ में भी नागभट् और बंगपति के बीच भयंकर संघर्ष का वर्णन है जिसमें वंगपति की बुरी तरह हार हुई थी। बंगाल जाने के पूर्व । बप्पमट्टिचरित के अनुसार ग्राम नागावलोक गोदाबरी १३ के तट पर गया था। ग्वालियर प्रशस्ति के अनुसार मांध्र, सैन्धव, कलिंग और विदर्भ ने उसके सम्मुख आत्मसमर्पण कर दिया था। जैसा दि डा० मजुमदार महोदय ने लिखा है नागभट ने इन राज्यों का बंगाल के विरुद्ध एक संघ बनाया चंडीगढ़ के समीप पिंजौर नामक एक स्थान है। प्राचीन जैन मंदिरों के अवशेष माज भी वहां दिखाई देते हैं । मनुष्य के कद की जैन तीर्थंकरों की प्रतिमायें वहां विद्यमान हैं । अलवेरुनी ने पिंजौर का उल्लेख किया है। क्या इन मन्दिरों का इस समय के इतिहास से कोई सम्बन्ध है ? लेखक के मन में अनेक शङ्कायें हैं। इन पुरातन अवशेषों का प्रध्ययन इस दृष्टि से श्रावश्यक है । अपने मित्र डा० मिश्रा के हम कृतज्ञ हैं जिन्होंने वहां स्वयं जाकर यह सूचना प्राप्त की है। ८. राधनपुर वाणी डिडोरी तथा संजान ताम्रपत्र ९. परंमेस्त्यामराजेन दुपहो विग्रहाग्रहः तदारखानाद् यदा पश्चात् याति तन्मे तिरस्कृतिः ।। १६८ ।। गृहागतो नृपः नवितो न च साधितः । द्विधापि चिरवंरस्य निवृतिनंप्रवर्तिता ॥ २६१ ॥ १०. राज्ये नः सौगतो विद्वान् नाम्ना वर्धनकु जरः । बप्पभट्टिवरित् । महावादी दृढ़प्रज्ञो जितवादी शतोलतः || ३६२ || देश सन्धी समागत्य वाद मुद्रां करिष्यति । सम्यै सह वयं तत्र समेष्यामः कुतूहलात् ।।३६३।। धर्मपाल बौद्ध था । पाल प्रभिलेखों में उसे 'परम सौगत' कहा गया है । तिब्बती परम्परा के अनुसार विक्रमशिला के बौद्ध मठ की स्थापना उसने ही की थी, जो ६ वीं से १२ वीं शती तक विद्या का महत्वपूर्ण केन्द्र रही । विरूपात बौद्ध विद्वान् हरिभद्र उसकी सभा में थे। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि arraft में वर्णित बौद्ध विद्वान वर्धनकुंजर भी उसके दबाव में रहा हो । ११. ततोऽपि श्रीयुतः कवकः पुत्रो जातो महामतिः यशो मुद्गागिरी लब्ध येन गौडे संभ रहे ||२४|| एपि. ई, भाग १८, १०६८ १२. ग्वालियर प्रशस्ति श्लोक १-१० । १३. गच्छन् गोदावरीतीरे ग्राम कंविधवाप सः ॥ २२३॥ भट्टिवरित तथा यानियर प्रथास्ति, फ्लो०८
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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