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________________ पंचकल्याणक तिथियाँ और नक्षत्र १२५ यहां भी तिथि के साथ नक्षत्र का मेल इस तरह की गल्तियां अन्य कई हस्त लिखित बनता नहीं है प्रतः यह पाठ प्रशुद्ध है। शुद्ध पाठ प्रथों में भी देखने को मिलती हैं। और शुद्ध पाठ 'पाषाऽश्विनी योगे होना चाहिए अर्थात् 'स्वाति, को अशुद्ध बना दिला जाता है । इसका एक उदा. की जगह अश्विनी होना चाहिए। भाषाढ बद १० हरण इस लेख में ऊपर भी बताया गया है कि के साथ अश्विनी को संगति वैठ जाती है। यहां "प्राषाऽश्विनी योगे" यह शव पाठ था जिसका यह शंका नहीं करनी चाहिए कि प्रथकार ने "भाषाढे स्वातियोगे" ऐसा प्रशुद्ध बना दिया गया जन्म नक्षत्रों में तो नक्षत्र के स्वामी देव के नाम है। यह हम इस लेख में ऊपर लिख चुके हैं कि पविती नाम दिया प्रायः प्रत्येक तीर्थकर के अपने अपने पांचों कल्याणक इसका उत्सर यह है कि पश्विनी नक्षत्र के स्वामी अधिकतर एक ही नक्षत्र में हये हैं। इस प्रपेक्षा से देव का नाम भी अश्विनी ही है।। भी वासुपूज्य के गर्भजन्म की तरह शेष तीन कल्याणक भी शतभिषा में ही होने चाहिये। (३) विमलनाथ का मोक्ष पर्व ५६ श्लो० ५५ में 'प्राषाढस्योत्तराषाढे" अर्थात् प्राषाढ बुदी ८ एक ही नक्षत्र में प्रत्येक तीर्थकर के प्रायः उत्तरापात में लिखा है किन्तु शुद्ध पाठ "प्राषाढ- पाचकल्याणक होने के संबंध में इतना और समझ स्योत्तरा भाद्र होना चाहिए क्योंकि माषाढ बुदी लेना चाहिये कि उत्तरपुराण में कहीं २ उस ८ को उत्तर भाद्रपद ही पड़ता है और यही नक्षत्र नक्षत्र के स्थान में उसके पास वाले नक्षत्र का नाम विमलनाथ के अन्य सब कल्यारणकों में है। दिया है। जैसे श्रेयांशनाथ के चार कल्याणक श्रवण नक्षत्र में और मोक्ष उनका धनिष्ठा में लिखा है। (४) बासुपूज्य के सब कल्याणक शतभिषा पार्श्वनाथ के चार कल्याणक विशाखा में और जन्म नक्षत्र में हए है किन्तु मुद्रित उत्तर पुराण में इनकी उनका प्रनिलयोग में लिखा है। अनिल कहिये दीक्षा तिथि फागुण बुदी १४ ज्ञानतिथि माघसुदी पवनदेव यह स्वाति नक्षत्र का स्वामी माना जाता २और मोक्ष तिथि भादवा सूदी १५ की लिखी है है। प्रतः यहां प्रनिल का अर्थ स्वाति नक्षत्र होता और तीनों का नक्षत्र विशाखा लिखा है लेकिन इन है। चंद्रप्रभ के तीन कल्याणक अनुराधा में और तीनों तिथियों के साथ विशाखा की संगति किसी जन्म उनका शक्रयोग में लिखा है। शक का अर्थ इंद्र तरह बैठती नहीं है, 'शतभिषा' के साथ बैठती है यह ज्येष्ठा नक्षत्र का स्वामी देव माना जाता है। यहाँ भी पाठ की अशुद्धि ही जान पड़ती है। तीनों अतः यहां शक्र का अर्थ ज्येष्ठा नक्षत्र होता है। पाठों में विशाखा वाक्य अशुद्ध ही जान पड़ती है मोक्ष भी इनका ज्येष्ठा में ही लिखा है । पुष्पदंत तीनों पाठों में विशाखा, वाक्य प्रशुद्ध है उसके स्थान के चार कल्याणक मूलनक्षत्र में मोर जन्म इनका में शुद्ध वाक्य 'भिषका' अथवा 'भिषाका' होना जंत्र योग में लिखा है । जंत्र का अर्थ इंद्र यह ज्येष्ठा चाहिए । शतभिषा के मागे का प्रत्यय लगाने से का स्वामी माना जाता है। अतः यहां जंत्र का अर्थ पात भिषका' या शत 'भिषाका' रूप बनता है- ज्येष्ठा नक्षत्र होता है इत्यादि इस प्रकार कल्याणकों जिसका संक्षिप्त नाम भिषका या भिषाका होता है के एक समान नक्षत्रों के साथ उनके समीप का जैसे सत्यभामा का भामा, यह संक्षिप्त नाम होता नक्षत्र का नाम कहीं किसी कल्याणकों में दिये जाने है। प्रयकार गुणभद्र ने भी यहां "शतभिषाका" का तात्पर्य यही समझना चाहिये कि उस तिथि को इस वाक्य का संक्षिप्त नाम "भिषाका" का प्रयोग वे दोनों ही नक्षत्र क्रम से भुगत रहे थे। पाप पंचांग किया है। प्रतिलिपि करने वालों ने भिषाका प्रयोग उठाकर देखिये तो पापको बहुत बार एक ही तिथि को अशुद्ध समझकर उसे विशाखा बना डाला है। में क्रमवार दो नक्षत्रों के अंश भुगतते नजर पायेंगे।
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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