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________________ "जैन ग्रंथों में राष्ट्रकूटों का इतिहास १३१ गोबिन्दराजका शासनकाल प्रल्पकालीन है और वह जिनसेनाचार्य के चरण कमलों में मस्तक रख पाक सं० ७०.१ के धूलिया के दानपत्र के पश्चात् कर अपने को पवित्र मानता था। १४ इसकी बनाई उसका कोई लेख नहीं मिला है अतएव यह ध्रव हुई प्रश्नोत्तर रत्नमाला नामक एक छोटी सी पुस्तक निरुपम के लिये ही ठीक है। उत्तर में इन्द्रायध का मिली है। इसके प्रारंभ में "प्रणिपत्य वदमानं" उल्लेख है। यह भण्डी वंशी राजा इन्द्रायुध है। शब्द है। यद्यपि यह विवादास्पद है कि प्रमोघवर्ष फ्लीट, भण्डारकर प्रभृति विद्वानों ने भी इसे ठीक जैन धर्म का पूर्ण अनुयायो पा अथवा नहीं किन्तु माना है। कुछ इसे गोविन्दराज III के भाई यह सत्य है कि वह जैन धर्म की ओर बहत इन्द्र सेम मानते हैं जो उस समय राष्ट्रकूटों की भोर प्राकृप्ट था। इसी के शासन काल में लिखी महावीरासे गुजरात में प्रशासक था। स्वतन्त्र राजा चार्य को गणितसार संग्रह नामक पुस्तक में प्रमोघनहीं। प्रशस्ति में तो स्पष्टतः इन्द्रायुध पाठ है वर्ष के सम्बन्ध में लिखा है कि उसने समस्त प्रतएव इस प्रकार के तोड़ मोड़ करने के स्थान प्राणियों को प्रसन्न करने के लिये बहत १५ काम पर इसे इन्द्रायुध ही माना जाना ठीक है । पूर्व में किया था जिसकी चित वृति रूप अग्नि में पापकर्म वत्सराज का उल्लेख है। शक सं० ७०० में लिखी भस्म हो गया था। प्रतएव ज्ञात होता है कि वह गई कुवलयमाला में इस राजा को जालोर का बहुत ही धार्मिक प्रवृति का था। इसमें स्पष्टतः शासक माना है। प्रवन्ति प्रतिहार राजापों के जैन धर्मावलम्बी बरिणत किया है । राष्ट्रकूट शासन में संभवतः दंतिदुर्ग के शासन काल से शिलालेखों से ज्ञात होता है कि प्रमोघवर्ष कई बार राज्य छोड़कर एकांत का जीवन व्यतीत करता १३. प्राचार्य जिनसेन जो प्रादि पुराण के था और राज्य युवराज को सौंप देता था। संजान कर्ता प्रमोघवर्ष के गुरु के नाम से विख्यात हैं। के दानपत्र के श्लोक ४७ व अन्यदान पत्रों में इसका उत्तरपूराण की प्रशस्ति में स्पष्टतः वरिणत है कि स्पष्टतः उल्लेख है। प्रश्नोतर रत्न माला में ही यो। - E. Epigraphica-Indica-Vol IV P, 195-196 १०. डा० गुलाबचन्द चौधरी-हिस्ट्री प्राफ नोर्दनं इंडिया फ्रोम जैन सोर्सेस पृ० ३३ ११. सगकाले बोलीणे वीरसारण सत्ताई गएहिं। सत्तर ____एक दिन पूणेहिं रइया प्रवरह वेलाए। र पर भइ भिरुहि भेगोपण ईयण रोहिणी कलाचंदो। सिरिबच्छराय लामो गरहस्थी पत्थिवो जइया ।। (कुवलय माला ) १२. प्रत्तेकर-राष्ट्रकूटाज एण्ड देयर टाइम्स पृ० ४० १३. "इत्यमोघवर्ष परमेश्वर परमगुरु श्री जिनसेनाचार्य विरचित मेघदून वेष्टिते पाम्पुिदये......" (पार्वाभ्युदय के सों के अन्त की पुष्पिका) १४. यस्य प्रांशुनलोशुजालविसरदारान्तराविर्भव त्पादाम्भोजरजः पिशङ्ग कुमुट प्रत्यग्ररत्नतिः । संस्मती स्वममोघवर्ष नृपतिः पूतोहमत्यलं स श्रीमान् जिनसेन पूज्य भगवत्पादो जगन्मङ्गलम् ।।८।। उत्तर पुराण को प्रशस्ति १५. नापूराम प्रेमी-जन साहित्य का इतिहास पृ० १५२
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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