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________________ १३० बायू छोटेलाल जैन स्मृति प्रन्ध १३ शक संवत् ७३८ में पूर्ण होना वरिणत किया ध्रव निरुपम भी शासक नहीं हुमा था। इसके है और लिखा है कि जिस समय राष्ट्रकूट राजा अतिरिक्त हरिवंशपुराण में वीरसेनाचार्य का जगतुंग राज्य त्याग चुके थे और राजाधिराज उल्लेख है लेकिन उनको इस घबला टीका का बोदणराय शासक थे इसे पूर्ण किया। श्री ज्योति उल्लेख नहीं है। स्मरण रहे कि इस ग्रंथ में प्रसाद जी जैन ने इसे अस्वीकृत करके लिखा है कि समन्तभद्र देवनन्दि महासेन प्रादि भाचार्यों के प्रमों प्रशस्ति में स्पष्टतः "विक्कम रायाई" पाठ है प्रत- का स्पष्टतः उल्लेख है । अतएव यह घटना वि० सं०. एव यह विक्रम संवत होना चाहिए। प्रतएव उन्होंने ७०५ के पश्चात् ही हुई है। यह तिथि ८३८ विक्रमी दी है। भाग्य से ज्योतिष के जयघवला के अन्त में लम्बी प्रशस्ति दी हो अनुसार दोनों ही तिथियों की गणना लमभग एक है। इससे ज्ञात होता है कि वीरसेनाचार्य की इस सी है । लेकिन राजनैतिक स्थिति पर विचार करें अपूर्ण कृति को जिनसेनाचार्य ने पूर्ण किया था। तो प्रकट होगा कि यह तिथि विक्रमी के स्थान पर यह टीका शक संवत् ७५९ में महाराजा अमोघवर्ष शक संवत ही होना चाहिए। इसका मुख्य प्राधार के शासन काल में पूर्ण की गई थी। यह है कि विक्रमी संवत का प्रचलन इतना प्राचीन नही है । इसके पूर्व इस संवत का नाम कृत और बहुचर्चित हरिवंश पुराण की प्रशस्ति के मालब संबत मिलता है । विक्रमी संवत का सबसे अनुसार शक सं० ७०५ में जब दक्षिण में राजा प्राचीनतम लेख ८१८ का धोलपुर से चण्ड महासेन बल्लभ, उत्तरदिशा में इन्द्रायुद्ध, पूर्व में वत्सराज का मिला है । लेकिन इसका प्रचलन उत्तरी भारत पोर सौरमंडल में जयवराह राज्य करते थे तब में अधिक रहा है । गुजरात और दक्षिणभारत में बढवाल नामक ग्राम मे उक्त ग्रंथ पूर्ण हुआ था। उस समय लिखे गये ताम्रपत्रों में शक संवत या शक संवत् ७०५ की राजनैतिक स्थिति बडी उल्लेखवल्लभी संवत् मिलता है। इसमें उल्लिखित जगतुग नीय है। दक्षिण के राष्ट्रकूट राजा का जो उल्लेख निःसंदेह राष्ट्रकूट राजा गोविन्द राज तृतीय है है वह संभवतः ध्रव निरुपम है। गोविन्द II की और बोहराय प्रमोधवर्ष। अगर विक्रमी संवत् उपाधि भी “वल्लभराज" थी। इसी प्रकार श्रवण८३८ मानते हैं तो यह तिथि १६ १०७८० ई. बेलगोला के लेख नं० २४ में ६ स्तम्भ के पिता हो पाती है। उस समय मोविन्दराज का पिता ध्रव निरुपम की भी उपाधि वल्लभराज है। ४. अट्टतीसम्हि सासिय विक्कमरायम्हि एमु संगरमो.। साणामो वा पासे मुतेरसोए भाव-विलग्गे धवल पकड़े ॥ ६ ॥ जग तुग देव-रज्जे रियम्हि कुम्हि राहणा कोणे । सुरनुलाए संते गुरुम्हि कुल विल्लए होते ॥ ७ ॥ बोद्दण राय रिदे परिंद चूडामरिणम्हि भुंजते ॥ ६ ॥ धवला १, १, १, प्रस्ता०४-४५ ५. अनेकांत वर्ष पृ. २०७-२१२ ६. भारतीय प्राचीन लिपी माला पृ० १६६ ७. शाकेष्वब्द शतेषु सत्यम दिशं पञ्चोसपतरां पातीन्द्रायुध नाम्नि कृष्ण नृपजे श्री वल्लभे दक्षिणाम् पूर्वा धी मदवन्ति भूभृति नृपे वत्सादि राजे परां कार्याणामधि मण्डलं जयगुते वीरे वराहऽवति ।। ५२ ॥ ८. अल्तेकर-राष्ट्रकूटाज एण्ड देयर टाइम्स पृ० ५२-५३
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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