SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नहीं उतारा क्योंकि जैन कवि गृहस्थ होते हुए भी प्राचरण में साधु ही के समान होते थे। अतः जो कुछ उन्होंने कहा वह प्राध्यात्मिक स्तर पर ही कहा। उन्होंने अपनी कविता को विलासिता के स्तर से परे ही रखा । उनको दृष्टि में विलासिता या मधुर भावना ही अशांति का कारण है। फिर भी जैन कवि मधुर भावना से सर्वथा अछूते रहे ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। 'निसीहिया या नशियां" लेखक-- श्री हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, ब्यावर । भारत में बहुत से नगर एवं ग्राम ऐसे हैं जिनके बाहर जैन मंदिर बने हुए हैं जो नशियां कहलाते हैं । इन मंदिरों में पर्याप्त ऐसा स्थान होता है जहां साधु सन्त आदि रह सकें। यह नशियां शब्द कैसे बना, इमका पूर्व रूप क्या था आदि पर विचार करना ही इस लेख का विषय है। लेखक ने कई प्रमाणों और युक्तियों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि नशियां निसिहियां का ही बिगड़ा हुवा रूप है। "ॐ जय जय जय, निस्सही निस्सही निस्सही, नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु" पाठ का जो अर्थ वर्तमान में प्रायः प्रचलित है लेखक ने उससे भी अपना विरोध प्रकट किया है और उन्होंने सयुक्तिक बतलाया है कि यह पाठ अशुद्ध है। शुद्ध पाठ 'निषीधिकारी नमोऽस्तु', अथवा ‘णमोत्थु मिसीहियाए" होना चाहिये । लेखक की युक्तियां विद्वानों के लिये वित्तारणीय हैं। चतुर्थ खण्ड "Jainism as I understand." लेखक-श्री नरेन्द्रसिंह सिंघी। प्रस्तुत लेख में लेखक ने जैन धर्म में ईश्वर, जैन साधु और गृहस्थों का प्राचार, धर्म एवं विभिन्न देशों में रहने वाले जैनों को एकता में बांधने वाले साधनों आदि की अति संक्षिप्त जानकारी दो है जिससे जैनधर्म के मोटे २ सिद्धांतों का ज्ञान पाठक प्राप्त कर सकता है। "Jainism in the eye of Swami Vivekanand." लेखक-श्री समरेश बंदोपाध्याय, एम. ए. । वर्तमान युग के प्रसिद्ध वेदान्ती सन्त स्वामी विवेकानन्द का जैनधर्म के सम्बन्ध में क्या विचार था, यह इस लेख के पढ़ने से ज्ञात होता है। यद्यपि जेन वेदों को प्रमाण और ईश्वरकृत नहीं मानते तथापि वे हिन्दू हैं ऐमी स्वामीजी की मान्यता थी। "Ahimsa in Indian Thought." लेखक-डा० सुकुमार सेन । अहिंसा सिद्धांत भारतीय धर्मों का प्राण है। प्रायः सभी धर्मों ने इस पर जोर दिया है। इतना होने पर भी जैन, बौद्ध और हिन्दू इन तीन प्रमुख धर्मों के अहिसा सम्बन्धी दृष्टिकोण में मौलिक अन्तर है। इस अन्तर को संक्षेप में स्पष्ट करना ही इस लेख का उद्देश्य है जिसमें लेखक सफल हुआ है। "Place of Jain Philosophy in Indian Thought." लेखक-महामहोपाध्याय डा० उमेश मिश्रा । सर्वोच्च सत्य अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति के उपाय को खोज करना प्रायः सब ही भारतीय धर्मों का मूल उद्देश्य रहा है। विभिन्न ऋषि महषियों ने विभिन्न उपायों की खोज की है अथवा यों कहें कि उद्देश्य तो सबका एक है किन्तु उसकी प्राप्ति के मार्ग सबके भिन्न भिन्न हैं। जैनों का भी अपना एक मार्ग है। भारतीय दर्शनों में जैन धर्म की स्थिति और
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy