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________________ हो रहो है । भारतीय जोवन महानद के दोनों किनारों को पुष्ट करने के बजाय हन उनको कमजोर करने में लगे हैं । इस वस्तुस्थिति को जितनी जल्दी समझा जावेगा, उतना ही हमारा कल्याण सुनिश्चित और सुरक्षित है। प्राशा है समाज के नेता, विद्वान् और धर्म के ठेकेदार स्वर्गीय प्रात्मा की इस चेतावनी को सुनेगे। "अपभ्रंश साहित्य और मणिधारी श्री जिनचन्द्र सूरि कृत व्यवस्था शिक्षा कुलकम्',।" लेखक-डा० हीरालाल माहेश्वरी, एम.ए. पो.एच डी. एल.एल.बी. डि-फिल, प्राध्यापक राजस्थान विश्वविद्यालय । व्यवस्था शिक्षा कुनकम्' मणिधारी श्री जिनचन्द्र सूरि की अपभ्रंश भाषा की उपदेश प्रधान मुक्तक रचना है। रचनाकाल विक्रम को तेरहवीं शताब्दी है । इमी रचना का ववेचन लेख का विषय है। लेख परिश्रम से लिखा गया है। 'संस्कृत के जैन संदेश काव्य" लेखक - श्री गोपीलाल अमर, एम.ए. साहित्यरत्न । जैन संदेश काव्यों की इतर संदेश काव्यों से विशेषता बताते हुए लेखक ने पार्वाभ्युदय, नेमिदूत, जैन मेघदूत, शीलदून, पवनदूत, चेतोदूत, इन्दुदूत, मेघदूत समस्या लेम्व इन अाठ र देश काव्यों का विस्तार से वर्णन बताते हुए इन्दुदूत, चन्द्रदूत, चन्द्रदूत, मनोदूत और मयूरदूत इन पांच सन्देश काव्यों का केवल नाम मात्र ही उल्लेख किया है। जैन मन्देश काव्यों का परिचय प्रस्तुत करना लेम्वक का उद्देश्य रहा है। __ "वाग्भटालंकार : एक परिशीलन" लेखक-श्री अमृतलाल शास्त्री। संस्कृत अलंकार अन्यों में वाग्भटालंकार का अपना एक विशेष स्थान है । यद्यपि प्राप्त अलङ्कार ग्रन्थों में यह सबसे छोटा है किन्तु अलङ्कार सम्बन्धी सम्पूर्ण विषयो की जानकारी प्रस्तुत ग्रन्थ से हो जाती है । अन्य का रचना कान विक्रम को १२वीं शताब्दी है । लेखक ने इस लेख में उक्त ग्रंय का परिशीलन किया है। 'सिद्धमेन का अभेदवाद और दिगम्बर परम्परा" लेखक-सिद्धांताचार्य पं० कैलाश चन्द्र जो शास्त्री। केवी के ज्ञानोपयोग को लेकर जैनाचार्यों में मतभेद है। एक मत के अनुसार दर्शनोपयोग पूर्वक ही ज्ञानोपयोग होता है। दूसरे मत के अनुसार दोनों उपयोग युगपत् होते है। तोसरे मन के अनुसार ज्ञान और दर्शन में कोई भेद ही नहीं है। यह तीसरा मत है सन्मति तर्क के कर्ता प्राचार्य सिद्धमेन का। लखक ने जो इस विषय के अधिकारी विद्वान् हैं सिद्धमेन की उन तमाम युक्तियों का जो कि उन्होने प्रथम दोनो मतों के खण्डन में दी है, दिग्दर्शन कराते हुए द्वितीय मत के साथ उसका समन्वय किया है और बतलाया है कि द्वितीय मत में निश्चय दृष्टि मे केवली के ज्ञान और दर्शन अभिन्न है जबकि सिद्धसेन की ताकिक दृष्टि में अभिन्न है। केवल दृष्टिकोण का ही अन्तर इन दोनों में है। इसीलिये सिद्धसेन के अभेदवाद का द्वितीय मत के अनुयायियों को परम्परा में प्रबल विरोध नहीं मिलता, अपितु प्रकारान्तर से समर्थन ही मिलता है । कहना नहीं होगा कि लेखक ने इस सम्बन्ध में नया दृष्टिकोण विद्वानों के समक्ष उपस्थित किया है जो विचारणीय और मननीय है। "हिन्दी जैन भक्त कवियों की मधुर भावना" लेखक-श्री रंजन सूरि देव, पटना । लेखक ने उदाहरणपूर्वक बताया है कि जैन कवियों ने दाम्पत्य रति को भौतिक धरातल पर
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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