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________________ ( द ) में केवल प्रमाण को । विद्वान् लेखक ने युक्ति पुरस्सरपूर्वक श्रागम प्रमाणों के साथ जैन दर्शन का पक्ष सिद्ध किया है । " दर्शन और विज्ञान में श्रात्मा" लेखक - श्री उदय नागौरी, बी.ए. सिद्धांत । श्रात्मा है या नहीं, यह प्रश्न बहुत प्राचीन काल से ऊहापोह का विषय बना हुआ है । प्रस्तुत लेख में पौर्वात्य और पाश्चात्य दार्शनिकों का श्रात्मा के सम्बन्ध में जो विचार है उनको एकत्र कर अन्त विज्ञान का इस सम्बन्ध में क्या अभिमत है यह बताया है । लेख काफी अध्ययन और मनन पश्चात् लिखा गया है। यह लेख के अन्त में सहायक ग्रंथों की दी गयी सूची से ही प्रकट है । " दृष्टिकोणों का दृष्टिकोण" लेखक-श्री कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' । लेखक हिन्दी संसार के जाने माने हैं । विषय को प्रकट करने की उनकी अपनी एक विशिष्ट हो शैली है । प्रस्तुत लेख में भी उन्होंने अपनी उस ही विशिष्ट शैली में बड़े ही रोचक ढंग से अनेकान्त का प्रतिपादन किया है। "हम अपनी राय पर दृढ़ रहें, पर दूसरे की राय पर अपनी राय न चढ़ावें, उसे नगण्य न मानें। इससे मतभेद के आगे एक दीवार खिंच जाती है और क्रोध, हिंसा, प्रतिहिसा श्रौर युद्ध नहीं हो पाते। यह भी एक दृष्टिकोण ही है । 'दृष्टिकोणों का दृष्टिकोण' भारत के ज्ञानकोष को भगवान् महावीर का प्रेमोपहार है ।" यह है लेख का निष्कर्ष श्रोर गृह, देश और विश्वशांति वा श्रमोघ उपाय । मांग नरेश मारसिह की सल्लेखना " लेखक- पं. के. भुजबली शास्त्री। गंगनरेश मार्रासह ने ई० सन् ९७४ में प्राचार्य श्रजित सेन के पादमूल में सल्लेखना द्वारा शरीर त्याग किया था । गंग नरेश के प्रताप का वर्णन श्रवणबेलगोल के लेख सं. ३८ और ५६ में है । उस ही वृत्तान्त को लेखक ने अपनी भाषा में कथोपकथन शैली में लिखा है । "भारतीय जीवन महानद के दो किनारे" लेखक- स्व० श्री सत्यदेव विद्यालंकार | शायद ही हिन्दी का कोई ऐसा पाठक हो जो श्री सत्यदेव जी के नाम से परिचित न हो। वे कई दैनिक पत्रों के सफल सम्पादक रहे थे। प्रस्तुत लेख उन्हीं की यशस्वी लेखनी से उद्भुत है । " श्रमण संस्कृति का मूल आधार श्रम है जिसके द्वारा आत्म विकास में संलग्न व्यक्ति अणुव्रतों और महाव्रतों का पालन करते हुए भगवान् पद की प्राप्ति कर सकता है ।'' अपने श्रम के अनुसार हर व्यक्ति को उसका परिणाम भोगना ही होगा . "हर व्यक्ति की श्रात्म साधना उसके अपने श्रम पर निर्भर है । वह उसके लिये किसी दूसरे को दान दक्षिणा देकर कमीशन एजेण्ट अथवा ठेकेदार नहीं बना सकता। यह दोनों संस्कृतियों (श्रमण और वैदिक) में मूलभूत अन्तर है । ... जैन धर्म का वर्तमान रूप मानव जीवन में युगों तक किये गये सांस्कृतिक प्रयोगों का सार अथवा निचोड़ है आदि ।" बताते हुए उन्होंने परामर्श दिया है कि जैन धर्म के मूल तत्त्वों की व्याख्या इस रूप में श्रवश्य ही की जानी चाहिए कि वे वर्तमान कालीन राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं का सर्वसम्मत हल उपस्थित कर सके। अन्त में उन्होने चेतावनी दी है कि व्यावहारिक रूप में जैनधर्म की क्षमता असीम है। दुर्भाग्य यह है कि जैन धर्म के अभिमानी लोगों में ही विश्वास, श्रद्धा तथा निष्ठा की कमी उसकी क्षमता के लिये घातक सिद्ध
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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