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बहुमूल्य अनुरोध
नहीं पाई जाती । यों उनका दान भी कम नहीं है । लाखों पर तो पहुँचा ही हुआ है ।
उनके दान में एक विशेषता और थी कि दान देने पर फिर उस रकम से मोह नहीं रखा जाता न उस रकम वो अपने उपयोग में लाया जाता है । या तो वह रकम जहां के लिये होती वहीं पहुँचा दी जाती, या प्रन्तन करके उसका व्याज चालू कर दिया जाता । दान की यह ईमानदारी भी असाधा
है।
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ही प्रच्छे विद्वान भी थे प्रग्रेजी के लेखक भी थे । फिर भी उन्हें किसी बात का अभिमान नही था । श्रात्मगौरव का पूरा ध्यान रखते हुए भी वे बड़े विनीत थे। कई बार मेरे कलकत्ता प्राने पर बीमार रहने पर भी वे स्वागत के लिये स्टेशन पर आये । जब सत्याश्रम भाये तब में विदा करने के लिये स्टेशन तक साथ चलने लगा पर उनने किसी तरह न माने दिया । तांगे में इस तरह सामान जमा दिया कि में पहुँचने के लिये तांगे में बैठ भी न सकूं। सभी के साथ उनका यथोचित विनीत व्यवहार था । इतने श्रीमान विद्वान और दानी होने पर भी उनकी ऐसी विनीतता असाधारण थी ।
विनयशीलता
बाबू छोटेलालजी, श्रीमान थे दानी थे, साथ
देव टेढ़ा हो तो आदमी की चतुराई काम नहीं देती । असंभव घटना भी तब संभव हो घट जाती है ।
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मनुष्य झूठ के साथ समझौता करके जीवन की किननी सम्पदा नष्ट कर डालता है ।
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frer और व्यवहार में मतभेद होते हुए भी किसी पर श्रद्धा की जा सकती है ।
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से ग्रहण किये हुए दुःख को ऐश्वर्य के समान भोगा जा सकता है।
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बहु परिग्रह के भीतर जीवन तुद्ध होने लगता है । दुःख दैन्य और अभाव में से गुजर कर मनुष्य का चरित्र महान और सत्य हो जाता है।
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संसार में अपने पराये का जो व्यवहार चल रहा है वह अर्थ हीन है। यहाँ न कोई अपना है न पराया। यह कोई नहीं जानता कि संसार के इस महा समुद्र के प्रवाह में पड़कर कौन कहाँ से बहता हुआ पास भा जाता है और कौन बहकर दूर चला जाता है।"
- बाबू जी की डायरी से