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बाबू छोटेलाल जी मूक छाक
दृष्टिगोचर हो सकते हैं में भारतीय ज्ञानपीठ के संचालक साहू शान्तिप्रसाद जी के विचारों से परिचित है, वे उसे लेकर कोई व्यापार नहीं करना चाहते और न उसे घाव का साधन समझते हैं। फिर तो हिन्दी साहित्य से प्राप्त प्राय जैन साहित्य में खपाई जा सकती है। यहाँ मेरा उद्देश्य बाबू छोटेलालजी की, जैन साहित्य के संशोधन, सम्पादन ute विश्वव्यापी प्रकाशन के प्रति बलवती आकांक्षा को प्रगट करना ही है ।
मनुष्य स्वयं विद्वान बन सकता है और विद्वत्ता के उस पर भी चढ़ सकता है, क्योंकि यह उसके निज से सम्बन्धित बात है. किन्तु दूसरों को बनाना और उन्हें भागे बढ़ाना घासान कार्य नहीं है । यह वे ही कर सकते हैं, जो महासत्त्व है, जिनका दिल सवेषु मैत्री गुणषु प्रमोदम् से बना है। प्राज जैन समाज में अनेक विद्वान हैं, जिनकी विद्वत्ता और रूपाति की तह में बाबूजी की प्रेरणा श्रौर सहायता के ही दर्शन होते हैं। बाबूजी ने कभी उसका उल्लेख भी नहीं किया। उल्लेख तो तब करते जब उन्होंने यह कार्य अपने नाम के लिए किया होता । उनका यह स्वभाव था। स्वभाव-वशात् ही वे ऐसा करते थे। सौभाग्य से उनके पिता ने उनके इस स्वभाव को निखारने के अवसर भी दिये। बाबूजी ने मुझे सुनाया "जब भी कोई विद्वान कलकत्ता माता तो मेरे पिताजी मुझे उस विद्वान को कलकत्ता घुमाने के लिए भेज देते। इस भांति प्रारम्भ से ही मैंने विद्वानों के प्रति श्रद्धाभाव संजोया है।" इसी भाव ने उन्हें स्वयं विद्वत्ता की ओर उन्मुख किया। विसा उपार्जित कर भी वह श्रद्धा भाव तदवस्थ बना रहा। इसी भाव के कारण अपने से छोटे युवा विद्वानों के प्रति उनका श्रद्धा-गभित प्रेम उमड़ उठता था ये विद्वान प्रायः ऐसे होते कि उनके होते कि उनके कदम लड़खड़ाते, दिल काँपता और कुछ परिस्थितियों से विवस से हुए जारहे होते। बाबूजी का प्रगाथ स्नेह और प्रत्येक प्रकार का सहाय्य उन्हें मजबूत बना देता । प्रभी विगत वर्ष ही दिल्ली में 'Inter
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national oriental conference' का प्रायोजन था । वीर-सेवा-मन्दिर की तीसरी मंजिल के एक कक्ष में कलकता के एक युवा विद्वान ठहरे ये परिचय हुआ तो बाबूजी के स्नेह का स्मरण कर गद्गद् हो उठे, कण्ठ भवरुद्ध हो गया। केवल वे ही नहीं उस समय वहाँ ठहरे दक्षिण के एक वृद्ध भट्टारक, डॉ० ए० एन० उपाध्ये, डॉ० कलापाचन्द्र, डॉ० कमलचन्द सोगानी, बाबू जयभगवान जी प्रादि सभी एक ही स्नेह-सूत्र में बंधे थे। सभी के हृदय बाबूजी के पावन स्मरण से प्रोत प्रीत थे में घरों को छोड़ अपनी कहता हूँ। सन् १९६९ के जून के मध्यान्ह में मैंने सब से पहली बार बाबूजी के दर्शन वीरसेवा मन्दिर दिल्ली के मुख्य भवन में किये । मेरे हाथ में अपने शोध-प्रबन्ध 'हिन्दी के भक्ति काव्य में जैन साहित्यकारों का योगदान' की पाण्डुलिपि थी। उन्होंने उसे पढ़ा और सराहा। तुरन्त भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशन हेतु स्वीकार कर लिया । मेरी एक बहुत बड़ी समस्या हल होगई। आज वह ग्रन्थ 'जैन भक्ति काव्य की पृष्ठ भूमि' और 'हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि' शीर्षक से प्रकाशित हो चुका है। प्रकाशन के समय इस ग्रन्थ के संशोधन में बाबू जी के ठोस सुझाव कार्यान्वित किये गये हैं । यह उनका स्नेह ही था। उनका स्नेह यहाँ तक बढ़ा कि जब वे कलकता गये तो पूरे वीर-सेवा-मन्दिर की देखभाल और 'अनेकान्त' की जिम्मेदारी मुझे सौंप गये । मैं उनका विश्वास प्राप्त कर सका, इससे गौरवान्वित हूँ। उनकी सतत प्रेरणा से प्रेरित होकर ही जैन शोध के क्षेत्र में मेरी रुचि बढ़ती गई और में उस पथ पर अग्रसर हैं ।
वीर-सेवा मन्दिर बाबू छोटेलाल जी की मूक साधना का प्रतीक है। यद्यपि इस मन्दिर की स्थापना बाबू जुगलकिशोर जी बाबू जुगलकिशोर जी मुख्तार ने सरसावा में की थी, किन्तु उसे पल्लवित और पुष्पित करने का समूचा श्रेय बाबू छोटेलाल जी को ही है। इस संस्था को उन्होंने विपुल प्रार्थिक सहायता स्वयं दी और दिलवाई । प्रनेकान्त के संचालन का समूचा श्रेय उन्हीं