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________________ बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ १५ को दिया जा सकता है। पहले भी उन्होंने इसको जन्म दिया था और अब भी उन्होंने इसको पुनः प्रारम्भ किया। पहले तो वे इसके सम्पादक भी रहे और अनेक शोध-योज पूर्ण निबन्ध इसमें प्रकाशित हुए। पैसा उन्होंने दिया और सम्पादन, निबन्ध लेखन सब कुछ भी उन्होंने किया। कभी ख्याति की आकांक्षा नहीं की । ख्याति उन्हें मिली भो नहीं, वह किसी और को उपलब्ध होती रही । विन्तु बाबू जी को इससे हार्दिक प्रसन्नता मिली, वे ऐसा ही चाहते थे । इस बार 'अनेकान्त' का संचालन उनके श्रद्वितीय साहस और लगन शील हृदय का प्रतीक था, उन्होंने विद्वान लेखकों की सूची बनाई, उनसे सम्बन्ध स्थापित किया, श्रीमन्त सेठों को दान के लिए अनुप्राणित किया, ग्राहक बनाये, प्रस तै किया, मुख पृष्ठ की रूपरेखा स्वयं बनाई । संकलित लेखों को पड़ा और सम्पादित किया। समूची प्रफ रीडिंग की । जब छपकर भाया तो अपने हाथ से डिस्पैच किया । लेई से कागज तक चिपकाये। यह सब कार्य उस समय किया जब कि वे अस्वस्थ थे । इस पर भी न तो वे प्रकाशक थे और न उनका नाम सम्पादक मण्डल में था। दूसरे अंक के पश्चात् जब वे कलकना चले गये तो एक सज्जन यह कहते सुने गये "नौकर तक के काम उन्होंने खुद अपने हाथ से किये इसकी क्या जरूरत थी, फिर कहते हैं कि मैंने इतना काम किया, उतना काम किया ।” में उनकी बात सुन भिन्न रुचिहि लोकः' पर विचार करता रहा । भला वे सज्जन कैसे सोच सकते थे उस भाव भीने प्रेम और उत्तरदायित्व को जो उनके दिन में 'अनेकान्त' के प्रति भरा था। इस बार भी सम्पादक मण्डल में बाबूजी का नाम नहीं था किन्तु उनके सुझाव और निर्देशन इतने ठोस होते थे कि कोई भी सम्पादक बिना विरोध के उन्हें कार्य रूप में परि रगत करने को उद्यत हो जाता। मुझे जहाँ तक स्मरण है, उन्होंने अपना कोई सुझाव थोपा नहीं और न 'अनेकान्त' की गति में कोई हस्तक्षेप किया । 'अनेकान्त' एक उत्तम पत्रिका बन सकता है, यदि 'अनेकान्त' से सम्बन्धित व्यक्ति बाबूजी की आत्मा को समझ सकें । विद्वत्ता के परिप्रेक्ष्य में बाबूजी का यह संक्षिप्त प्राकलन है । विद्वान विद्वद्मन्यः हो जाते हैं, अहंकार उनका सहचर बन जाता है। बाऊजी इन दोनों ही से मुक्त रहे। धन्त तक वे अपने को न कुछ मानते हुए विद्वानों का मादर-सम्मान करते रहे। विद्वानों में सबसे बड़ा दुगुरंग होता है यशः कांक्षा । वे इसके लोलुप होते होते हैं, धनिकों के धन से भी अधिक । बाबूजी यश के समूचे स्थल उदारता-पूर्वक दूसरों को देते रहे या मिला उन्हें भी, किन्तु उसकी गति धीमी और ठोस है । यदि हम मि० स्टीवेन्सन के शब्दों में कहें तो उनकी 'पोपुलरिटी' 'इन्टीमेट' है 'लोग' नहीं । अर्थात् समाचार पत्रों में अपना नाम ग्रन्थों पर नाम और व्याख्यानों के लिए अपने नाम की इच्छा उन्हें कभी नहीं हुई। इन प्राधारों पर नाम कमाने की उन्होंने कभी चेष्टा भी नहीं की। जो भी व्यक्ति उनके पास जाकर रहा, वह अवश्य ही यह प्रभाव लेकर गया कि हमने एक विद्वान के दर्शन किये और उससे भी पूर्व एक मानव के । मानवता के शवों पर उगने वाली विद्वत्ता को ही मि० स्टीवेन्सन ने 'लोग पोपुलरिटी' की संज्ञा से अभिहित किया था। बापूजी की मूक साधना ने उन्हें 'इन्टीमेट पोपुलरिटी का प्रतीक ही बना दिया। उनमें विद्वत्ता और मानवता का प्रभुत समन्वय था ।
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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