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स्मरणाञ्जलि
प्रो० डॉ० राजाराम जैन M.A. Ph.D., आरा
नाम तो छुटपन से ही सुन रखा था किन्तु
सन् १९५४ के नवम्बर या दिसम्बर मास में ज्ञानोदय (मासिक) का सहायक सम्पादक होकर जब कलकत्ते में रहने का सुअवसर मुझे मिला तब मैंने पूज्य बाबूजी के प्रत्यक्ष दर्शन किये थे । कलकत्ते जैसी विशाल, प्रत्यन्त व्यस्त एवं वैभवपूर्ण नगरी को देखने, नौकरी करने एवं रहने का यह मेरा सर्वप्रथम अवसर था। कलकत्ते की भीड़भाड़ में भी मैं अकेलेपन का अनुभव किया करता था। वहां के जीवन से ऊबकर में शीघ्र ही भागने की सोच रहा था कि महमा ही मुझे बाबूजी के कलकत्ता निवास का स्मरण हो धाया और अत्यन्त संकोच भाव से उनके घर बेगछिया पहुँचा फोटो की रौनक, अपनी दरिद्रता तथा एक रईस के सम्भावित उपेक्षा पूर्ण व्यवहार की कल्पना करके दस्तक देने का माहम न कर सका और दरवाजे से में वापिस लौटने को ही था कि बाबूजी किसी कार्यवश बाहर निकले और मुझे देख मेरा परिचय पूछने लगे । मेरी सामान्य जानकारी प्राप्त कर वे मुझे भीतर ले गये और सर्वप्रथम भोजन करने का प्रादेश दिया। मुझे स्वीकृति सूचक सिर हिलाने के अलावा श्रौर कोई चारा ही न रहा। वैसे में स्वभावतः ही संकोची हूँ, किन्तु उनकी प्रास्मीयता से मेरा सारा संकोच काफूर हो गया और तभी से में उन्हें 'बाबूजी' कहकर पुकारने लगा । कलकत्ते में उनके परिचय के बाद जो ५-६ माह रह सका, वह मात्र उनके स्नेह एवं प्रेम के कारण ही, अन्यथा में शायद ही वहाँ रह पाता में क्या खाता हूँ, कहाँ खाता । हूँ, कहाँ रहता है, घर के लोग कहाँ हैं, माफिस से लौटकर बाकी समय का क्या उपयोग करता हूँ, क्या पढ़ा करता हूँ, आदि प्रश्न वे मुझ से करते और मेरे उतरों से यदि उन्हें सन्तोष नहीं होता तो तज्जन्य परेशानी उनके माथे से स्पष्ट झलकने
लगती। मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ कि कलकत जैसी स्वार्थपूर्ण नगरी में उन्होंने मुझे पितृवत् स्नेह. गुरुवत् ज्ञान और वयोवृद्ध होने के नाते पथ प्रदर्शन एवं आशीर्वाद दिया । साधनहीन जिज्ञासु नवयुवक के हृदय पर विजय प्राप्त करने के लिये और क्या चाहिये ?
सन् १९५५-५६ में जब में गवर्नमेण्ट कालेज शहडोल (विन्ध्यप्रदेश ) में हिन्दी प्राध्यापका में सोच रहा था कि स्थानान्तरित होने के बाद बाबूजी मुझे भूल चुके होंगे। अतः हमारा पत्रव्यवहार बन्द हो गया। प्रचानक ही एक दिन देखता हूँ कि पोस्ट माफिस की कितनी ही सील मुहरों से ठुका-पिटा एक पत्र मुझे मिला। पढ़ने पर में शर्म से झुक गया। वह पत्र बाबूजी का था जिसमें मुझे हितचितापूर्ण उलाहने एवं डांट-फटकार के बाद मेरी प्रगति प्रादि के सम्बन्ध में जानकारी चाही गई थी। समाज के उदीयमान नवयुवकों के प्रति ऐसा स्नेह था उनका मुप्रसिद्ध सुभाषित ग्रन्थ बज्ज लग्गं की यह उक्ति उनके ऊपर कितनी फलती है:--
दूरद्विया न दूरं सज्ज चितारापुव मिलियाणं । गयाट्ठियो वि चन्दो सुणिन् कुशाद कुमुयागां ॥ कसो उम्गमइ रवी कत्तो विसन्ति पंकयवणाई | सुरगाणा जत्थ नेहो न चल दूरट्टियारणं पि ॥
सन् १९५६ से ६१ तक राजकीय प्राकृत शोष संस्थान वैशाली मुजफ्फरपुर के सेवाकाल में तो मेरा उनसे निरन्तर पत्र व्यवहार रहा और पिता एवं गुरु के समान सदैव ही मुझे उनका पथप्रदर्शन मिलता रहा, किन्तु मुझे इस बात का निरन्तर दुख बना रहा कि कई बार उनका प्रादेश मिलने पर भी में उनसे दूसरी बार भेंट न कर सका ।