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________________ ३४ बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ प्रतः २८ / २९-१२-६३ को जैन सिद्धान्त भवन की हीरक जयन्ती के अवसर पर धारा में पुनः उनसे भेंट हुई तो उनकी शारीरिक स्थिति देखकर अत्यन्त खिन्न हो उठा । वे स्वयं उससे परेशान थे। बोले। भाई, प्राप लोगों के धाग्रह को न टाल सका, मतः प्रसमर्थ होते हुए भी यहाँ जिस किसी प्रकार प्रा गया हूँ, अब सम्भवतः कलकल से बाहर जाने का यही भातिरी अवसर होगा। नहीं कह सकता कि कब में जगत से विदा हो जाऊँ । लम्बी सांस खींचने 'जाऊँ । लम्बी सांस खींचने के सिवाय और कुछ न बोल सका। भाई बद्रीप्रसाद जी पटना श्रादि कई सज्जन वहाँ बैठे थे । वातावरण इतना गम्भीर हो उठा कि कोई भी प्रत्युत्तर में कुछ कह न सका । धारा-प्रवास में वे श्री जैन बाला विश्राम में ठहरे थे । कलकत्ता वापिस लौटने के पूर्व में पुनः उनसे भेंट करने गया। बातचीत के दौरान मेरे शोध प्रबन्ध की बात छिड़ गई । महाकवि रघू की रचनाओं के परिचय के प्रसंग में मैंने सचित्र "जसहर चरिउ (यशोपर चरित्र) की हस्तलिखित ग्रन्थ की चर्चा उनसे की। यह भी बताया कि साधनाभाव में में उसकी फोटो कापी भी नहीं करा सका हूँ यह सुनकर वे बड़े चिन्तित हो गये । तुरन्त ही मुझे पटना चलने का आदेश दिया । यद्यपि तत्काल कार्य होना सम्भव न हुआ हफ्तों बाद थोड़ा सा हुआ, किन्तु मूल प्रेरणा उन्हीं की थी जो धाज मेरे अध्ययन कर सकने लायक वह प्रति बन सकी । फरवरी १९६५ में अचानक ही मुझे शान्तिनिकेतन (बंगाल) जाना पड़ा, तभी सोचा कि कलकत्ते में तीर्थस्वरूप पूज्य बाबूजी से भी भेंट करता चलूं । उनके घर पहुँचा तो मालूम पड़ा कि लगभग छह माह से उनकी स्थिति बहुत ही खराब है । हफ्तों से चारपाई से नीचे नहीं उतर सके हैं। उनके कमरे में प्रविष्ट हुआ तो देखा कि वे तकिये के बल पर झुके बैठे थे, प्रयास करने पर भी लगभग मापे घण्टे तक एक भी शब्द न बोल सके। जब कुछ ताकत भाई तब कुशलवृत्त पूछने के बाद उनसे मेरे शोध-प्रबन्ध की चर्चा हुई। मैंने कुछ सूचनाएँ उनसे चाहीं । मेरी जिज्ञासा शान्त करने हेतु पता नहीं उनमें कहाँ से बल भा गया। वे तुरन्त ही पलंग से नीचे उतरे, बगल के कमरे से चाभियों का गुच्छा खोजा और अपने अध्ययन कक्ष में पहुँच कर आलमारी खोली एवं शोध पत्रिकाएँ, इतिहास ग्रन्थ, रिपोर्टस यादि एक के बाद एक निकालकर लगे मुझे सूचनाएं देने मेरा ध्यान उपलब्ध सामग्री की । और उतना अधिक न था जितना बाबूजी के अचानक प्राप्त शक्ति एवं उत्साह की थोर । वे बोले" श्रापको श्राश्चर्य क्यों हो रहा है ? में भारतीय संस्कृति, साहित्य एवं पुरातत्त्व का पुजारी हूँ। इनकी मैंने सतत् सेवा की है और इनकी सेवा के लिये ही में अभी कुछ समय और जीवित रहना चाहता हूँ । मुझे यदि कोई बच्छा सहयोगी मिले तो में पुनः कुछ शोध कार्य प्रारम्भ करना चाहता हूँ । साहित्य सेवा एवं पुरातत्वात्येपण मेरे परम अभिरुचि के विषय हैं। इन कार्यों में डूबने से मेरी जीवनी पाति में वृद्धि होती है ।" वृद्धयुवा बाबूजी के जीवन का यह गूढ़ रहस्य मुझे उसी दिन ज्ञात हुआ। में अवाक् रह गया । - - श्रद्धय बाजी समाज, साहित्य एवं पुरातत्व की अमूल्य निधि थे। समाज में जब भी कोई आन्दोलन हुआ, संघर्ष छिड़ा, योजना बनी अथवा कहीं कोई प्रकान मादि पड़ा, वे उसके धगुषों में रहते । सेवा की लगन ने उन्हें आराम हराम बना दिया था। नवयुवकों के वे सच्चे हितैषी थे। साप्तपदीन मंत्री का निर्वाह भी वे बड़े ही उत्तरदायित्व के साथ करते थे। सरस्वती का वरदहस्त तो उन पर था ही, लक्ष्मी को भी अटूट कृपा उन पर थी। सरस्वती और लक्ष्मी का ऐसा अपूर्व समन्वय उन्हें मिला था। उनके भाग्य पर किसी को भी ईर्ष्या हो सकती थी। वे सच्ची श्रद्धा के पात्र थे । उनकी पवित्र स्मृति में श्रद्धा के ये कुछ सुमन भेंट चढ़ा रहा हूँ ।
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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