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________________ भट्टारक युगीन जैन संस्कृत-साहित्य की प्रवृत्तियाँ समय अनुमानतः विक्रम की १९ वीं शती है । arrer की मौनव्रत कथा ( १७वी शती) सोमकीर्ति की सप्तव्यसन कथा समुच्चय ( १६वीं शती) भी इस युग की प्रतिनिधि रचनाएं हैं। पुराणों में केशव सेन का कर्णामृत पुराण ( माघ वि० सं० १६८८), सकलकीर्ति का पार्श्वनाथ पुराण (१६वीं शती) ब्रह्म कामराज का जयपुराण (वि० सं०) १५६०, शुभचन्द्र का पाण्डव पुराण (वि० सं० १६०८) ब्रह्म कृष्णदास का मुनिसुव्रत पुराण (१७वीं सदी) शिवराम का भ्रष्टम जिनपुराण संग्रह (१७वीं सदी) चन्द्रकीति के पार्श्वपुराण और ऋषभपुराण, श्रीभूषण के पाण्डव पुराण शांतिनाथ पुराण वंश पुराण ( १७वीं सदी) धर्मकीत्ति का पद्मपुराण एवं प्ररुणमणि का अजितनाथपुराण (१८वीं शती), सुन्दर पौराणिक कृतियाँ हैं । १४. टीका टिप्परण विषयक साहित्य - भट्टारक युग में टीका टिप्पण विषयक साहित्य प्रवृत्ति का पर्याप्त पल्लवन हुमा है । सहस्रकीति की त्रिलोकसार टीका (१५वीं शती) प्राशाधर की भूपालचतुविशति टीका और मूलराधना दर्परण (१३वीं शती) सोमदेव की त्रिभंगोसार टीका (१७वीं शती) नेमिचन्द्र की द्विसन्धान काव्य की पदकौमुदी टीका (१७वीं सदी) शुभचन्द्र की स्वामि कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा संस्कृत टीका (वि० सं० १६१३ ) और पाश्र्वनाथ काव्य पंजिका, योगदेव की सुखबोध वृत्ति ( १७वीं सदी) ज्ञानभूषरण और सुमतिकीति की कर्मकाण्ड टीका (१५वीं शती) ज्ञान भूषरण की नेमि निर्वाण पंजिका (१६वीं शती) कमल कीर्ति की तस्वसार टीका (१६वीं सदी) श्रीदेव की यशोधर काव्य पंजिका (१५वीं सदी) काष्ठान्वयी प्रभाचन्द्र की तस्वार्थरन प्रभाकर टीका ( १५वी सदी ) पण्डित प्रभाचन्द्र की पंचास्तिकाय प्रदीप और द्रव्यसंग्रह- वृत्ति एवं तोड़ानगर के राजा मानसिंह के मंत्री वादिराज की वाग्भटालंकार प्रवरि ११६ कविचन्द्रिका (वि० सं० १४२९) प्रसिद्ध टोका रचनाएं हैं । श्रुतसागर सूरि ने इस युग में यशस्तिलक 'चन्द्रिका तत्वार्थवृत्ति' जिनसहस्रनाम टीका, महाभिषेक टीका, षटपाहुड टीका, सिद्धभक्ति टीका, सिद्धचकाष्ट टीका और तत्वत्रय प्रकाशिका ये भाठ प्रसिद्ध टीकाएं लिखी हैं । धर्मशर्माभ्युदय श्रीर चन्द्रप्रभचरित पर टिप्पण भी इस युग में लिखे गये हैं । १५. कोष, छन्द और अलङ्कार अलंकार, छन्द और कोष आदि विषयों पर इस युग में अल्प रचनाएं हो प्रस्तुत हुई हैं । श्रीधर का विश्वलोचन कोष (१६ वीं शती) कोष विषयक उत्तम रचना है । यह अपने विषय में भ्रमर कोष और मेदिनी से भी उत्तम एवं बहुमूल्य कृतिमान जा सकती है । अलंकार ग्रन्थ में विजयकीति के शिष्य विजयवर्गी की श्रृंगाराव चन्द्रिका (धनुमानतः १३-१४ वीं शती) अमृतनन्दि का प्रलंकार संग्रह ( १३ वीं शती), अजितसेन का अलंकार चिन्तामरिण ग्रन्थ ( १४वीं शती), अभिनव वाग्भट का काव्यनुशासन ( १४ वीं शती) एवं भावदेव का काव्यालंकार सार (१५ वीं शती) श्र ेष्ठ अलंकार रचनाएं हैं। छन्द विषय पर वाग्भट की एक रचना छन्दोऽनुशासन नाम की उपलब्ध है । यह रचना काव्यानुशासन के पूर्व में ही लिखी गई है । इस छन्द ग्रन्थ में संज्ञाध्याय, समवृत्ताख्य, प्रर्धसमवृत्ताख्य मात्रामक और मात्रा छन्दक ये पांच अध्याय हैं। मंगलाचरण में लिखा है: विभुं नामेयमानम्य छन्दसामनुशासनम् । श्री मन्नेमिकारस्यात्मजोऽहं वच्मि वाग्भटः । इस प्रकार भट्टारक युग में विभिन्न साहित्यिक प्रवृत्तियों का विकास होता रहा । ग्रन्थ बाहुल्य की दृष्टि से तो इस युग का महत्व है ही, पर विविध विषयक रचनाओं की दृष्टि से भी इस युग का कम महत्व नहीं । 11:11
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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