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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रन्थ
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सम्पूर्ण प्रथम सर्ग को समाविष्ट कर दिया है । इस काव्य में यह सर्ग हैं। इसी कवि ने माघ काव्य के 'प्रत्येक श्लोक का अन्तिम चरण लेकर और तीन पाद स्वयं नये रचकर विजयदेवसूरि के afरत को निबद्ध कर देवानन्द काव्य का प्ररणमन किया है । कवि ने माघ के चरणों का नया ही अर्थ निकाला है। माष में जहाँ जहाँ श्लोक के प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ चरण में यमक है वहाँ वहाँ समस्यापूर्तिकार ने यमक रखकर बड़ी चतुराई से पर्यानुसन्धान किया है। भट्टारक कवियों ने भक्तामर स्तोत्र और कल्याण मन्दिर स्तोत्र की समस्या पूत्तियां की हैं ।
११. न्याय दर्शन विषयक प्रवृत्ति
भट्टारक युग में प्रमेयरत्नमाला और तस्वार्थसूत्र पर वृत्तियां लिखने के साथ-साथ न्याय और दर्शन विषयक एकाध स्वतन्त्र रचना भी लिखी गई है | भट्टारक धर्मभूषरणयति का न्यायदीपिका ग्रन्थ बहुत ही उपयोगी और सारगर्भित है । भट्टारक प्रमोचन्द्र का तत्वार्थरत्नप्रभाकर ( १५ वीं शती) तस्वार्थबोध के लिये प्रवेशद्वार है । भट्टारक शुभचन्द्र का संशयवदनविदारण और कारण रगच्छीय शुभचन्द्र का पड्दर्शन प्रमाणप्रमेयानुप्रवेश जैन न्याय की सुन्दर रचनाएं हैं ।
१२. संहिता विपयक विविध साहित्य
जैन साहित्य में दो प्रकार के जीवन मूल्य दृष्टि गोचर होते हैं । प्रथम वे जीवन मूल्य हैं जो भौतिक, शारीरिक सम्पत्ति तथा सुखभोग के त्याग से सम्बन्ध रखते हैं और दूसरे ऐहिक सुखभोग के साधनों को प्राप्त करने के लिये तन्त्र-मन्त्र ज्योतिष एवं श्राराधना के उपयोग पर जोर देते हैं । प्रकान्तात्मक जैन दृष्टि उक्त दोनों प्रकार के जीवन-मूल्यों का समन्वय प्रस्तुत कर अन्तिम लक्ष्य त्याग या निवृत्ति को ही महत्व देती है । विजयप के भाई नेमिचन्द्र का प्रतिष्ठा तिलक ( प्रानन्द संवत्सर (वि० सं० १३ वीं सदी ) विजयप के पुत्र
समन्तभद्र का केवलज्ञान प्रश्नचूड़ामणि (१३ वी शती) प्रकलंक देव की प्रकलंक सहिता (प्रनुमानसः १५ वीं शती) माषनन्दि की माधनन्दि संहिता ( अनुमानतः १३-१४ वी शती) सिंहनन्दि का व्रततिथि निर्णय ( १७ वी शती) चन्द्रसेन सुनि का केवलज्ञान होरा (धनुमानतः १६ वीं शती) भद्रबाहु संहिता ( १५ वीं शती) मल्लिषेरण के काम चाण्डाली कल्प, ज्वालामालिनी कल्प मौर भैरव पद्मावती कल्प (१३ बीं शती) धर्मदेव का शान्तिक विधि ग्रन्थ ( १५ वीं शती) ऐम्पपार्य का जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय ( वि० सं० १३७६ सिद्धार्थ संवत्सर) इस प्रवृत्ति की प्रतिनिधि रचनाएं हैं । यन्त्र-मन्त्रों के कई संग्रह भी इस युग के भट्टारकों ने लिखे हैं । जैन सिद्धान्त भवन द्वारा ने यन्त्र-मन्त्र संग्रह मन्त्र अनुष्ठान एवं मन्त्र समुच्चय प्रभृति कई कई रचनाए उपलब्ध हैं। इन रचनाओंों के रचयिताओं के सम्बन्ध में इतिवृत्त उपलब्ध नहीं हैं ।
१३. पुराण और कथा साहित्य - इस प्रवृत्ति का पूर्ण विकास भट्टारक-युग में हुआ है । श्रुत सागर सूरि की षोडशकारण कथा, मुक्तावलि कथा, मेरुपंक्तिकथा, लक्षण पंक्ति कथा, मेघमाला, सप्तपरमस्थान, रविवार, चन्दनवष्ठि, प्राकाशपंचमी, पुष्पांजलि, नि.शत्य सप्तमी, श्रावण द्वादशी, रत्नत्रय प्रादि २३ व्रत-कथाएं इनके व्रतकथाकोष में निबद्ध हैं । श्रुतसागर उत्तमश्रेणी के कथाकार हैं। इनका समय वि० सं० १५००-१५७५ के मध्य है । कवि जिनदास का व्रत कथा कोष (१५-१६ वीं शती) ब्रह्मनेमिदत्त का प्राराधना कथाकोष (१६ वीं शती) और ललित कीति की नन्दीश्वरव्रत कथा, अनन्तव्रत कथा, सुगन्ध दशमी कथा, रत्नत्रय व्रत, प्राकाश पंचमी कथा, धनकलश कथा, निर्दोष सप्तमी कथा. लब्धि विधान कथा, पुरन्दर कथा, कर्मनिर्जरा कथा, मुकुट सप्तमी कथा, चतुर्दशी कथा, दश लक्षण व्रत कथा, पुष्पांजलिव्रत कथा, अक्षय निधि दशमी कथा निःशल्याष्टमी व्रत विधान कथा, सप्त परमस्थानकया तथा षटरस कथाएं उल्लेखनीय हैं। इनका