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________________ हिन्दी के आदिकाल के जैन प्रबन्ध काव्य तीर्थङ्करों व उनके समकालीनों का चरित्र निबद्ध है। मार्ग-पुराण में ८० संधियां हैं और उत्तरपुराण में ४२ । २०००० श्लोक प्रमाण का यह ग्रंप वास्तव में मनोहर है। प्रादिपुराण का प्रारंभ रूढ़ि के अनुसार ही विनम्र प्रात्मनिवेदन, आश्रयदाता ( महामात्य भरत ) की प्रशंसा, खल-निन्दा, सज्जन- प्रशंसा, रनोद्देश्यवन तथा श्री ऋषभदेव के अवतार ग्रहण की भूमिका प्रस्तुति से होता है । ऋषभदेव के जन्म के वर्णन उपरान्त उनकी बाललीला का वर्णन कवि ने अत्यन्त मनोयोग से किया है । यथा "सेसवलीलिया कोलमसीलिया । पहणादाविया केरण णा भाविया || धूली धूसरु arresडिल्लु । सहायक विलकinलु जडिल्लु ||" इत्यादि तदनन्तर भगवान के विवाह, सन्तानोत्पत्ति वैराग्य एवं महानिर्वाण का वर्णन कर प्रादिपुराण समाप्त होता है । निस्सन्देह भादिपुराण की कथावस्तु महाकाव्योचित प्रबन्ध कौशल से निबद्ध है । उत्तरपुराण में २३ कथाएँ हैं और उनमें एकतानता का स्पष्ट प्रभाव है पर चरित्रों के प्रसंग में युद्धों एवं देशविदेश के वर्णन के साथ ही ज्ञानविज्ञान, दर्शन राजनीति प्रादि की गंभीर बातों को रखकर 'महाभारत' के अनुकरण पर ही ग्रंथ को faraste बनाने की चेष्टा महाकवि ने की है । व्यास ने अपने काव्य के लिए कहा था । "जो यहां है वही अन्यत्र है, जो यहाँ नहीं है, वह कहीं नहीं है ।" पर अभिमानमेरु ने उससे भी बड़ी घोषणा की है" इस रचना में प्रकृत के लक्षण, समस्त नीति, छन्द, अलंकार, रस, तत्वार्थ- निर्णय सभी कुछ भा गया है और जो यहां है वह अन्यत्र कहीं नहीं है. धन्य हैं ये पुष्पदंत और भरत जिन्हें ऐसी सिद्धि प्राप्त हुई ।" उत्तरपुराण में रामचरित्र और महाभारत भी है । पुष्पदन्त ने वाल्मीकि और व्यास की भर्त्सना की है और लगता है कि महाकवि जो स्वयं शैव रहे थे और शिवमहिम्नस्तोत्र के रचयिता थेब्राह्मण विरोधी भावना से युक्त थे । रामकथा की अपेक्षा कृष्णकथा में महाकवि ने अधिक रुचि ली है और नटखट कृष्ण व प्रगल्भ गोपियों की लीला उन्होंने प्रेमपूर्वक चित्रित की है। कभी मथानी तोड़ते और कभी प्राधा विलोया दधि लुढ़काते कृष्ण से टूटी मथानी का मोल प्रालिंगन मांगतो गोपियां बाजी मार ले गई हैं- 'एल महारी मंeft भग्गी, ए यहि मोल्लु देउ प्रालिंग, काले कृष्ण के प्रालिंगन से गोली चोली के काली होने पर 'मूट जलेन जांइ पक्खालs, कहकर नवीनता प्रदर्शित की गई है। पर कृष्ण की कालियदमन और गोवर्द्धन धारण सहा पौरुषप्रधान लीलाओं में उनकी लेखनी अधिक सशक्त हो उठी है । गोवर्द्धन धारण से पूर्व घनघोर वर्षा का नादानुरंजित चित्र देखिए • 'जलु गलइ भालभलद । दरिभरइ सरसरइ । asues afsues | गिरिफुडर, सिहिगडइ | notes reges | जलु थलु वि गोडल वि।” इत्यादि गायकुमारचरि 'लायकुमार चरिउ' पुष्पदंत का ६ सन्धियों का मनोहर खण्डकाव्य है। 'श्रुत पञ्चमी व्रत' की महिमा बताने के उद्देश्श से रचित यह काव्य यद्यपि पातालपुरी भादि साम्प्रदायिक व प्रलौकिक स्थानों व घटनाओं के बाहुल्य से युक्त है पर कहीं कहीं यथार्थ चित्रण की झलक भी मिल जाती है । जैसे वेश्याहाट के वन में । यहाँ कवि की भाषा का प्रवाह देखिए--- "कवि वेस ग्रह रग्गु सयप्यई । झिज्जर खिज्जइ तप्पs कंपइ ।
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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