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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रन्थ
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जो उसने मुक्ताहार से सुशोभित प्रपने पति की प्रोर प्रसारित कर दी है।
समुद्र की गहराई की उपमा महाकाव्य की गहराई से, श्राकाश में मेघ विस्तार की उपमा महाकाव्य के विस्तार से तथा समुद्र के कन्दन की उपमा किसी निर्धन व्यक्ति की प्रप्रमाण चीखपुकार देकर महाकवि ने नवीनता दिखाई है ।
पउमचरिउ के अध्ययन के उपरान्त इस महाकाव्य को अमरकाव्य तथा स्वयंभुदेव को यशस्काय कहे बिना रहा नहीं जा सकता ।
रिमिचरिउ
स्वयंभुदेव कृत 'रिट्ठमिचरिउ' या हरिवंश पुराण' १८००० श्लोक प्रमाण महाकाव्य है जबकि पउमचरिउ केवल १२००० श्लोक प्रमाण है। इसमें यादव, कुरु और युद्ध नामक तीन काण्ड हैं जिनमें १३, १६ और ८० सन्धियाँ हैं । प्रारंभिक ६९ सन्धियों के रचयिता स्वयंभुदेव हैं, ग्रन्तिम २ सन्धियां ६ शताब्दी बाद होने वाले जसकित्ति कवि की कृति हैं तथा शेष त्रिभुवन की । निस्सन्देह ग्रंथ ६६ सन्धियों में पूर्ण था ।
इस महाकाव्य में स्वयंभुदेव की सर्वाधिक सहानुभूति द्रौपदी के साथ है। कोचक द्वारा अपमानित द्रौपदी को देखकर स्त्रियों को टिप्पणी बहुत सुन्दर है । पर रात्रि को द्रौपदी जब भीम से अपना दुःख व्यक्त करती है तो क्रूरकर्मा भीम दार्शनिक भाषा में द्रौपदी को समझाता है-"तुम संसार धर्म नही निरखतीं । कहीं सुख है, कही दु.ख । पूर्वकर्मों का वृक्ष ये दो फल ही देता है ! देखो रावण द्वारा सीता को क्या थोड़ा दुःख हुआ था ?" पाठक इसे काव्यापकर्ष हो मानेगा । त्रिभुवन ने अपनी रचित सन्धियों में दार्शनिकता बढ़ाकर भाषा को बोझिल और ग्रंथ को नीरस ही श्रधिक बनाया है, भले ही उसके द्वारा धार्मिकता बढ़ गई हो ।
प्रति प्राचीन एवं उदार 'यापनीय संघ' के अनुयायी महाकवि स्वयंभुदेव परवर्ती जंन कवियों की अपेक्षा अधिक उदार थे यह बात रिट्ठरोमिचरि में प्रत्यन्त स्पष्ट हो जाती है । प्रभिमन्यु मरते समय जिस सवेचिव देव की वन्दना करता है वह जैन सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार वरिंगत न होकर एक सर्वप्रभावी रीति से वरिंगत है - " जो निष्कल, सतत्, परात्पर है, जो नारायण, दिनकर विष्णु शिव, वरुण, हुताशन, शशि और पवन है, वह चाहे जो हो उसे एकान्त भाव से स्मरण करता हुआ अभिमन्यु मृत्यु को प्राप्त हुआ ।" कितनी सुन्दर उक्ति है ! अन्तिम पंक्ति को कवि के शब्दों में हम दोहरायें - " जो होउ सु होउ पुरणन्तु थिउ, एक्कन्ते करेप्पिर कालु किन्तु । " अपने निजी विचारों को अपने पात्रों पर थोपने का रोग स्वयंभुदेव को नहीं लगा था।
महाकवि पुष्पदंत
विक्रम की ग्यारहवीं शती के महाकवि पुष्पदन्त की भोज प्रवाह, सौन्दर्य और रस से परिपूर्ण रचनाओं के कारण उनका नाम स्मरण स्वयंभुदेव के पश्चात अत्यन्त भादरपूर्वक किया जाता है । महाकवि ने स्वयं को 'अभिमानमेरु' 'कविकुलतिलक' 'काव्य पिसल्ल' 'सरस्वतीनिलय' श्रादि नाम यथार्थ ही दिए थे । उनके तीनों प्रबन्धकाव्य मूल्यवान हैं । 'तिसट्ठिमहापुरिसगुणालंकारु' महाकाव्य है । 'गायकुमार चरिउ' व 'जसहरचरिज' खण्डकाव्य हैं ।
तिसट्ठिमहापुरिसगुणालंकारु
'तिसट्ठि महापुरिस गुणालंकार' की प्रसिद्ध 'महापुराण' के नाम से है। इसके दो खण्ड हैंश्रादिपुराण और उत्तर पुराण । जैन महापुरुषों -- २४ तीर्थकर १२ चक्रवर्ती, बलदेव, ६ वासुदेव और ६ प्रति वासुदेव - प्रर्थात् ६३ शलाकापुरुषों के चरित्र इस ग्रंथ में वरिंगत हैं। मादिपुराण में भगवान ऋषभदेव का और उत्तरपुराण में शेष