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________________ हिन्दी के मादिकाल के जैन प्रबन्ध काव्य [ पुरुष गुणवान होकर भी हीन होते हैं जो मरती ___ "जहि दक्खा-मंडव परियलंति हुई स्त्री का भी विश्वास नहीं करते ।] पुणु पंथिय रस-सलिलइ पियंति" "गर-णारिहिं एबहुउ अंतर अर्थात वहां द्राक्षा के मण्डप लहराते रहते हैं मरण वि वेल्लिए भेल्लइ तस्वरु" पौर पथिक जल न पीकर द्राक्षा रस ही पीते हैं। [मर और नारी में यही अंतर है कि मरने पर भी भगध की समृद्धि की कैसी सुन्दर व्यंजना है। लता तरुवर का त्याग नहीं करती। इसी प्रकार कामेरी प्रदेश में इन्द्रनीलमणियों का बाहुल्य भी सुन्दर विधि से व्यंग्य है-वहां इन्द्र और तब सीता अग्नि को चुनौती देती है कि नील की किरणों से भिद्यमान शशि जीर्ण दर्पण के वह जला सके तो जलाए । प्रग्नि-परीक्षित सीता समान हो गया है। से राघव क्षमायाचना करते हैं तो सीता का चरित्र एक विचित्र मोड़ लेता है । मोर वह दार्शनिक भाषा उपमानों के समायोजन में भी स्वयंभूदेव का बोलकर अन्तव्यथा की मार्मिक अभिव्यक्ति करती अपना वैशिष्ट्य है। नवीन एवं रूढ़ उपमानों की हैं-हे राघव ! न तुम्हारा दोष है, न जनसमूह का, माला से वे प्रत्येक चित्र को सटीक उपस्थित करना दोष तो दुष्कर्म का है ! और इससे मुक्ति जानते हैं। वन की मोर प्रस्थान करती सीता का उपाय यही है कि ऐसा उपाय किया जाए (रामगमन प्रसंग में ) राजभवन से निकल रही जिससे फिर स्त्रीयोनि में जन्म न लेना पड़े। है तो कवि को ऐसी लगा मानो हिमवान् से गंगा, वेद से गायत्री अथवा शब्द से विभक्ति निकल पड़ी सम्पूर्ण महाकाव्य ही करुण प्रसंगों से अोतप्रोत हो। यहां पर भावना को मुखरता दृष्टव्य है । है। रामवनगमन के अवसर पर माता का विलाप लोकगीतात्मक भाषा में प्रत्यन्त मामिक है। दश प्रतापी रावण के मरण पर विभीषण विलाप रथ विलाप भी हृदयस्पर्शी है । युद्ध में माहत लक्ष्मण में अलंकार मावोनयन में सहायक हैं-यह तुम्हारा के लिये विलाप करते मरत की उक्तियां-'मह हार नहीं टूटा पड़ा है, तारागण ही टूटे पड़े रिणवडिऊसि दाहिणउ पाणि' तथा 'प्रायइ सब्बइ हैं; तुम्हारा हृदय विद्ध नहीं हुआ है, विश्वव्यापी लम्भति जइ, गवरण लग्भइ भाइवरु" इत्यादि- गगन ही विद हुआ है। तुम्हारी प्रायु समाप्त नहीं अत्यन्त सुन्दर हैं। रावण मरण पर विभीषण एवं हुई है, रत्नाकर ही रीता हो गया है। तुम नहीं गए. मन्दोदरी द्वारा बिलाप भी स्वाभाविक एवं __ मेरी माशामों की पोटली ही चली गई है। तुम नहीं करण हैं। सो रहे हो, माज सम्पूर्ण भूमण्डल ही सो गया है। स्वयंभुदेव ने युद्धवर्णन में भी बड़ी कुशलता गोदावरी नदी के वर्णन में कवि की सूझ दिखाई है। युद्ध यात्रा वर्णन, शूरवीरों की उत्साह- देखिएपूर्ण भावनामों का चित्रण तथा युटों का वर्णन “फेरणालि बंकिम-बलयालंबिय महि बहु प्रत्यन्त प्रोजस्वो भाषा में किया गया है। प्रहे तरिणया। 'पउमचरिउ' में मनोहर प्राकृतिक दृश्य भी जल-णिहि मत्तारहो मोत्तिय-हारहो वाह चित्रित है। मगध देश में पके धान की फलमों, शुक पसारिय दाहिणिया ॥" पंक्ति, नन्दनवन प्रादि का वर्णन करने के उपरान्त अर्थात् गोदावरी बंकिम-फेनावलिरूपी वलय से कवि कहता है प्रलंकृत जलनिधि की वधू पृथ्वी को दक्षिण भुजा है
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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