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________________ बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रन्य पोर खण्डकाव्य ! महदेश्य, महान चरित्र, सम्पूर्ण 'पउमचरिउ' तथा रिहनेमि चरित्र तथा 'पंचमिपुगजीवन का चित्रण, गरिमामयी एवं उदात्त शैली चरिउ' तीन प्रबन्धाकव्य हैं । अन्तिम ग्रन्थ एक इत्यादि गुणों से भण्डित होता है विशालकाय खण्डकाव्य है जो अभी अनुपलब्ध है; इसमें महाकाव्य । और खण्डकाव्य होता है अप्रासंगिक नागकुमार चरित्र वरिणत रहा होगा। कथानों से मुक्तप्राय, कथा में एकदेशीयता युक्त, पउमचरित कथाविकास में वर्णनविस्तार कम तथा भावप्रवणता 'पउमचरित' में रामचरित्र वरिणत है। इसमें अधिक लिए हुए। पांच काण्ड हैं-विद्याधरकाण्ड. अयोध्याकाण्ड जैन प्रबन्धकाव्यों की लोकप्रियता का प्रश्न सुन्दरकाण्ड, युद्धकाण्ड मोर उत्तरकाण्ड । इनमें संस्कृत के जैन कवियों ने ऐतिहासिक महा- क्रमशः २०,२२, १४, २१, मोर १३ सन्धियां हैं। काव्यों की रचना में रुचि एवं दक्षता दिखाई है. सान्धसग] । प्रथम ८३ सन्धियां स्वयंभुदेव द्वारा यद्यपि इनका साहित्यिक तथा ऐतिहासिक भल्य रचित हैं और उनमें ग्रन्थ पूर्ण है । अंतिम ७ संधियों मास्थिर है। इसके विपरीत हिन्दी जैनकवियों ने को स्वयंभुदेव के पुत्र त्रिभुवन ने पितृदेहावसान अपने प्रबन्धकाव्यों में महाकवियों की अपेक्षा खण्ड- के उपरान्त जोड़ दिया था। ग्रंथ का प्रारंभ नम्र काव्यों और शास्त्रीय शैली की अपेक्षा चरित शैली प्रात्मनिवेदन तथा प्रात्मविश्वासाभिव्यक्ति के साथ में ही रचना अधिक की है। एक विशिष्ट पात होता है कवि 'सामारण भास' को त्यागने में असमर्थ यह भी है कि संस्कृत के जैनकवियों में साम्प्रदायिक है और 'गामेल भास' को त्यागकर कुछ भावना से मुक्त होकर रचने का जो गरण पाया जाता 'भागम-जुत्ति' गढ़ने में उसे रूचि नहीं है । “पुरण है वह हिन्दी के जैन कवियों में कम ही दिखाई पड़ता अप्पणउं पायडीन रामायण कावे" के अनुसार कवि है । प्रायः सभी प्रबन्धकाव्य जैन वातावरण से की कृति स्वान्तः सुखाय रचित है। परिपूर्ण हैं । प्रायः जैनमन्दिरों में, और बहुत हुआ मानवीय शक्ति और दुर्बलता दोनों से युक्त तो जनसमाज के एक ग्रंश के मध्य तक, सीमित रहने राम को चित्रित करने में कविकोशल पाकर भी हम वाले इन ग्रन्थों को मजैन समाज ने तो संभवतः यह कहने को बाध्य हैं कि कवि की महानुभूति राम इस काल में ही देखा है, और अभी भी बहुत कम से न होकर सीता से है। जहां जहां सीता का वर्णन ही । इसका कारण यह है कि प्रायः कविगण सरस या सीता द्वारा किसी कथन का प्रसंग प्राता है, स्थलों में (मने की अपेक्षा नरक, स्वर्ग, लोक्य, कवि की लेखनी थिरक उठती है-अग्निपरीक्षा से कर्मप्रकृति, गणस्थानादि के विस्तृत वर्णनों में पूर्व सीता वरासन पर विराजमान कैसी लगती है? ही फंसे रहे हैं और दर्शन से बोझिल साहित्य लोक- 'सासण-देवए जंजिरण-सासण' (जैसे जिन-शासन प्रिय नहीं हो सकता। जैनप्रबंधकाव्यों की लोक- पर जिन देवता)। उस समय सीता को राम ने कैसे प्रियता के प्रश्न पर विचार करते समय यह देखा ? 'सिय-पक्ख हो दिवसे पहिल्लए चंद-लेह एणं महत्त्वपूर्ण बात भी ध्यान में रखनी होगी कि सायरेण' (अर्थात् जैसे सागर शुक्लपक्ष के प्रथम इन कवियों के सामने राष्ट्रीयता की प्रेरणा देने दिवस पर चन्द्ररेखा को देखे) । जब राम ने सीता का लक्ष्य नहीं रहा, प्रायः सम्प्रदाय-भक्ति ही को अशुद्धता व निर्लज्जता के लिए धिक्कारा तो प्रेरणा एवं उद्देश्य रहा। निर्भीक एवं सतीत्व के गर्व से युक्त सीता की महाकवि स्वयंभुदेव उक्तियां बहुत मार्मिक बन पड़ी हैं यथामहाकवि स्वयंभुदेव साम्प्रदायिक उन्माद से "पुरिस णिहीण होति गुणवत वि रहित थे। वे महाकवियों में अग्रगण्य हैं। उनके तियहे रण पन्ति जति मरंत वि"
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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