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जैन समाज के आन्दोलन
उससे यह धान्यो
का पूरा जैनमित्र में भी छपा। मन भड़क उठा। रूढ़िपूजक समाज का साधारणतः मेरे विरुद्ध हो यह स्वाभाविक था इस लिये कुछ पंडित समाज के वकील बनकर मेरे विरुद्ध खड़े हो गये । मुझे इसके लिये सौ से अधिक लेख लिखने पड़े। पंचायतों और पंडितों से पत्र व्यव हार करना पड़ा। गांव-गांव घूमना पड़ा और भ्रन्त में इन्दौर की नौकरी भी छोड़नी पड़ी । श्रम तो बहुत हुआ ही पैसा भी खर्च हुवा। कुछ समय जीविका की बिता से भी परेशान हुबा परन्तु जहाँ तक विचार परिवर्तन का सवाल है यह आन्दोलन पूरी तरह सफल रहा। बहुत से विरोधी पंडितों के विचार भी बदल गये धौर व्यवहार में भी काफी सफल हुवा । दक्षिणी मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में दर्जनों की संख्या में जांति पांति तोड़कर विवाह हुए और कुछ अल्पसंख्यक जातियाँ तो एक तरह से आपस में मिल ही गई ।
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इसके बाद का प्रान्दोलन दि. जैन मुनियों के विरुद्ध था । स्थितिपालक जैन पंडितों ने तर्क से हार कर अपने बचाव के लिये दि. जैन मुनियों को आगे किया था। इस प्रकार एक तो मुनि लोग दलबंदी के शिकार थे। दूसरे उनकी कुछ हरकतों से समाज की बड़ी हानि हो रही थी शूद्र जल त्याग कराने से जैन समाज को काफी क्षति उठानी पड़ी थी। जांत पांत के आधार से मनुष्य को छोटा सममने का सिद्धान्त न्याय के विरुद्ध तो था ही जैनधर्म के विरुद्ध भी था तथा इसके कारण कई जगह जैनों का सामाजिक विरोध बहिष्कार भी हुआ था इसलिये प्रात्मघातक भी था । इसलिये दि. जैन मुनियों की प्रतीचना का एक जबर्दस्त प्रान्दोलन बन गया था। अजमेर से निकलने वाले जैन जगत द्वारा यह प्रान्दोलन किया जाता था । बी फतहचंदजी सेठी इसके प्रकाशक थे और में सम्पादक था । उस समय वि. जैन साधुयों के गुप्तसे गुप्त समाचार जैन जगत में प्रगट होते थे । जैन समाज में इस समय जैन जगतका बड़ा प्रातंक
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था। उस समय एक कवि ने लिखा था:
इस जैन जगत की जरा हिम्मत तो देखिये छोटे से मुंह से बम के गोले छोड़ रहा है।
उन दिनों दि. जैन मुनियों के विरोध में जो जैन जगत ने लिखा उसके कारण मुनिवेषियों की संघ अढा काफी कम हो गई और समाज काफी जग गया। मुनीन्द्रसागर दल के रहस्यों का तो इतना उद्घाटन हुधा कि दमोह की जैन पंचायत ने उस दल की गंगा भोली लेकर उसका बहुत सा धन छीन लिया। तब वह दल जबलपुर चला गया। जबलपुर की पंचायत ने भी उस दल के भ्रष्टाचार का डट कर मुकाबला किया। तब यह दल भंग हो गया । तीन मुनिवेषियों ने तो धात्म हत्या करती। बाकी मुनिवेष छोड़ कर भाग गये ।
उस समय स्थितिपालक पंडित जैन जगत को मुनि निन्दक कहते थे। कई मुनि तो धावकों को प्रतिज्ञा देते थे कि जैन जगत को कभी न छुयेंगे। यदि छू गया तो तीन बार मिट्टी से हाथ धोयेंगे । फिर भी वे मुनि लोग ही एकान्त में उसे स्वयं पढ़ते थे। उस समय के जैन जगत द्वारा जो मान्दोलन छेड़ा गया वह इतने अंश में तो सफल हुआ कि मुनिवेष लेने के कारण ही जो भक्ति मिला करती थी और वे लोग जो धालोचना से परे हो जाते थे वह न रही। यहाँ तक कि स्थिति पालक दल भी किसी न किसी मुनि का मालोचक बन गया ।
इसके बाद का जबर्दस्त आन्दोलन विधवा विवाह का था। सन् १९२० में चिन्तन करते करते भी विचारों में जो परिवर्तन हुवा उसने मुझे विधवा विवाह का समर्थक बना दिया पर इसका प्रान्दोलन में छेड़ न सका । एक बार ब्रह्मचारी शीतल प्रसाद जी से मेरी चर्चा हुई। मेने विधवा विवाह के पक्ष में अपनी दलीलें उन्हें सुनाई । बोलेविधवा विवाह के समर्थन में मेरे भी विचार हैं परन्तु मैं उन्हें प्रकट नहीं कर सकता । परन्तु मरने के पहले मैं लिख जरूर जाऊँगा कि में विधवा विवाह का समर्थक था और शायद ऐसा ही होता ।