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और हिन्दुओं के समान ही जैनों की भी कला के क्षेत्र में एक बहुत बड़ी देन है और जैन कला अपनी एक अलग विशेषता रखती है।
· The Early Phase of Jaina Iconography.' लेखक- श्री प्रार. सी. शर्मा । लेखक स्टेट म्यूजियम, लखनऊ के क्यूरेटर हैं। वराहमिहर द्वारा प्रतिपादित जैन मूर्तियों की विशेषता का वर्णन करते हुए लेखक ने ऐतिहासिक दृष्टि से जैन मूर्तिपूजा का प्राविर्भाव काल खोजने का प्रयत्न किया है। वर्तमान में प्राप्त अवशेषों के अनुसार यदि लोहानीपुर पटना से प्राप्त नग्न प्रतिमा के भाग को जैन सन्यासी की प्रतिमा मानी जावे तो यह कान ईसा पूर्व द्वितीय तृतीय शताब्दी माना जा सकता है किन्तु इसका क्रमिक इतिहास ईसा की प्रथम शताब्दी से चालू होता है । डा० स्मिथ के मत का उल्लेख करते हुए लेखक ने बताया है कि मथुरा का देवनिर्मित स्तूप भारत के ज्ञात भवनों में प्राचीनतम है। जैन मूर्तिकला के विकास का अध्ययन करने वालों के लिये लेख की उपादेयता स्वीकार्य है ।
• The Iconography of Sacciya Devi. " लेखक M. A. Dhaky । सच्चिया देवी श्रोसवाल जैनो की गृह देवता है । वे प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारम्भ में उसकी पूजा करते हैं। लेखक के मतानुसार उक्त देवी की पूजा ब्राह्मण भी करते हैं । श्रापने हेमाचार्य के शिष्य रत्न प्रभुसूरि के कथानक पर विस्तार से दृष्टिक्षेप करते हुए सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि श्रोसिया, जहाँ से कि श्रोसवालों का निकास हुआ है, में स्थित सचिया देवी की मूर्ति का पूर्वरूप परिवर्तित किया हुआ है। लेखक ने कथानक के अतिरिक्त अपने मत के प्रतिपादन में शिलालेख एवं अन्य तर्क भी प्रस्तुत किये हैं । लेख गवेषणापूर्ण है किन्तु उसमें प्रस्तुत तर्क विचारणीय हैं ।
“A Jaina Cameo at Chittoregarh." लेखक- श्री प्रादृशबनर्जी । चित्तोड़गढ़ अपने यहाँ समय समय पर हुए युद्धों और जौहर के लिये ही प्रसिद्ध नहीं है अपितु यह विभिन सम्प्रदायों का संगम स्थल भी रहा है। यहां पर स्थित शेव वैष्णव, जैन, सौर श्रौर बोद्ध मंदिर इसके प्रमाण हैं । लेख में 'शृङ्गार चँवरी" नामक जैन मन्दिर की कला और निर्माण शैली का जिसमें अब प्रतिमा नहीं है किन्तु जो कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण है और जिसका निर्माण महाराणा कुम्भा के समय में पन्द्रहवीं शताब्दी में हुआ था, विस्तृत वर्णन है ।
"An Introduction to the Iconography of Padmawati, The Jain Sasandevata " लेखक - श्री ए. के. भट्टाचार्य, एम. ए. पी. आर. एस. ए. एम. ए. ( लण्डन ) । पद्मावती प्रारंभ में यद्यपि २३ वें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ से संबंधित शासन देवता रही है किन्तु कालान्तर में किस प्रकार वह एक विषहारी एवं मारगा उच्चाटन श्रादि कार्यों के लिए स्वतन्त्र देवता के रूप में पूजी जाने लगी इसका क्रमिक इतिहास तथा उसका प्राचीन नाग पूजा एवं हिन्दू देवी सरस्वती, लक्ष्मी एवं बौद्ध देवी तारा से उसका संबंध श्रादि विषयों पर महत्व पूर्ण प्रकाश इस लेख में डाला गया है। लेख में स्थापित तथ्य तर्कों और प्रमाणों की भिती पर श्राधारित है और इस विषय में रुचि रखने वाले विद्वानों के लिये वह महत्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करता है ।