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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ
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हुई थी । दीन व्यक्तियों का दुःख देखकर वे शीघ्र ही द्रवित हो जाते थे और वे उनकी सहायता हेतु सदा तैयार रहते थे । "जो रहीम दीनहि लखे attery सम होय" बाबू जी " दीनबन्धु सम" थे । 'दीनबन्धु सम' होने के कारण ही उन्होंने हमारे प्रज के जरा से अनुरोध पर उनकी पूर्ण रूप से सफल सहायता की थी। जिसके लिए वे हमेशा उनके कृतज्ञ रहेंगे । ऐसे ही न जाने कितने बंधुघों की सहायता उन्होंने की होगी। किन्तु इस सम्बन्ध में विशिष्ट बात यह है कि सभा अथवा अन्य किसी व्यक्ति से वे अपनी सहायता की बात नहीं कहते थे । उनकी सहायता मूक होती थी जो उनके चरित्र का सबसे बड़ा गुण था । बाबू जी के माध्यम से जैन साहित्य की अनेक अप्रकाशित रचनाएं
प्रकाश में आई हैं। वे हमेशा ही लेखकों भौर शोध कर्त्ता को प्रोत्साहित करते रहते थे । उनके व्यक्तित्व से कालिदास के ये श्लोक स्मरण हो भाते
हैं
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ज्ञाने मौनं क्षमा शक्ती त्यागे श्लाषा विपर्ययः । गुणा गुरणानुबन्धित्वात् तस्य सप्रसवा इव ॥ अनाकृष्टस्य विषये विधांना पारहश्वन : । तस्य धर्मरतेरासीद् वृद्धत्वं जरमा विना ॥
खेद है कि ऐसा महान् व्यक्ति, साहित्य प्रेमी, समाज सेवी, पुरातत्वविद् एवं सरस्वती का अनन्यतम पुजारी प्राज हमारे बीच नहीं रहा। उनके छोड़े हुए कार्यों को आगे बढ़ाना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धाञ्जलि है ।
बात सोच कर मुँह से निकाल और लोगों के 'बस खत्म कर' कहने से पहले ही बोलना बंद कर दे । वाक् शक्ति के कारण ही मनुष्य पशु श्रेष्ठ है, यदि तुम अच्छी बात नहीं करते तो तुमसे तो पशु ही भले । + + + बिल्ली चूहे के पकड़ने में तो शेर है लेकिन चीते के सामने स्वयं चूहा बन जाती है ।
- महात्मा शेख सादी