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________________ श्रद्धय बाबू जी सुरेन्द्र गोयल, धारा दिनांक 1 २८-१२-६३ का सुहावना प्रभात । मन्द मन्द सुरभित वायु जन-जीवन में प्राण का संचार कर रही थी। उस दिन में प्रातःकाल से ही बहुत प्रसन्न था क्योंकि जैन सिद्धान्त भवन धारा के पाश्ववर्ती शान्तिनाथ मंदिर के विशाल प्राङ्गण में भवन की हीरक जयन्ती महोत्सव का प्रायोजन किया गया था 1 हीरक जयन्ती के सम्माननीय अतिथि थे बिहार के राज्यपाल श्री अनन्तशयनम आयंगार और स्वागताध्यक्ष के पद को सुशोभित कर रहे थे कलकत्ते के सुप्रसिद्ध रईस एवं पुरातत्वविद स्वनामधन्य श्रीमान बाबू छोटे लाल जी । मैंने उनका नाम तो पहले भी सुना था किन्तु दर्शन का अवसर प्राज ही प्राप्त हो रहा था। यह मेरे लिए एक महान सौभाग्य की बात थी । प्रथम झांकी में ही में बाबू जी की ओर आकृष्ट हो गया । उनकी कृश काया सफेद धोती और कुरते में खूब फब रही थी। सिर पर रखी गोल टोपी उनकी रईसी की परिचायिका थी । अभी तक मुझे सिर्फ यही अवगत था कि भाप एक धनी मानी रईस हैं, किन्तु आपकी प्रतिभा की झलक मैने उक्त महोत्सव में ही देखो और मुझे लगा कि लक्ष्मी और सरस्वती का प्रद्द्भुत समन्वय यदि कहीं है तो बाबू छोटे लाल जो में । प्राचीन काल से ही यह लोकोक्ति चली श्रा रही है कि लक्ष्मी और सरस्वती दोनों एक साथ निवास नहीं करती, उनका समन्वय संभव नहीं । किन्तु बाबू छोटेलाल जी इसके अपवाद थे। जब वह व्यक्ति मंचपर अपने प्रासन से बोलने के लिए उठा तो मानों सरस्वती जिह्वा पर ही भाकर बैठ गयी । भाप लगातार अपना विद्वत्ता पूर्ण प्रोजस्वी भाषण देते रहे। सभी की इस सरस्वती के पुजारी पर टिकी रहीं । मैं तो मानों मुग्ध ही था । सबसे विशिष्ट बात यह थी कि बाबू जी उन दिनों अस्वस्थ थे । दमा ने उन्हें बुरी तरह पीडित कर रखा था और उनका पाँच मिनट बोलना भी कठिन था । किन्तु जब वे सभामंच से तारस्वर में अपना भाषण करते रहे तब कुछ निकट के लोगों के विस्मय का ठिकाना न रहा । कहा जाता है कि साहित्यचर्चा के समय वे व्याधि मुक्त हो जाते थे। ऐसी लगन थी उनमें साहित्य सेवा श्रर चर्चा के प्रति । उसी अवसर पर एक दिन और मुझे प्रधिक निकट से उनके दर्शनों का सुप्रवसर प्राप्त हुआ । श्राप श्री जैन बाला विश्राम के विश्रान्ति भवन में ठहरे थे। मैं पूज्य गुरु देव डा० नेमिचन्द्र शास्त्री के कार्य हेतु उनके पास गया था। मुझे स्वयं भी उनसे मिलने की तीव्र उत्कण्ठा थी । उसी समय उनसे वार्तालाप का सोभाग्य भी मुझे मिला । वार्तालाप के क्रम में मुझे ऐसा श्रवगत हुआ कि आप मानवता के प्रबल समर्थकों में से एक हैं । श्राप जैसे महानुभावों के बल पर हो आज जैन धर्म साहित्य एवं संस्कृति को सर्वत्र गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त हो रहा है । प्राप अपनी रुग्ण शैय्या पर पड़े-पड़े भी जैन साहित्य एवं पुरातत्त्व के प्रभ्युत्थान के बारे में सोचते रहते थे । जैन धर्म, माचार, संस्कृति एवं पुरातत्त्व संबंधी अधिकांश चर्चा प्राकृत भाषा में है । में प्राकृत भाषा का विद्यार्थी था अतः उनकी बातें मुझे बड़ी ही रुचिकर लग रहीं थीं । I बानू जी में केवल साहित्य प्र ेम ही नहीं बल्कि भारतीय संस्कृति की प्रमुख प्रतीक सचाई, सहानुभूति एवं सहृदयता प्रादि भी कूट-कूट कर भरी
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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