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बाबू छोटेलालबाबू जैन स्मृति प्रन्य पार पहुंचने लगे और अपने यहाँ हर प्रकार की पवित्रात्मा की उपमा कैलाश पर्वत स्थित सरोवर सुविधाएं प्रहणकर साहित्य प्रणयन के लिये उनसे के बिमल जल से दी है:भाग्रह करने लगे। संघवी कमलसिंह, जो कि ग्वा- पइकिउ बरतिच्छु गोवायलि । जिह भरहे कइलियर के, तोमरयंशी राजा हूंगरसिंह (वि. सं. लासें विमल अलि ।। १४५१-:५१०) के विस एवं गृहमंत्री थे, सर्वप्रथम
(सम्मत्त०१॥१५॥४) रइधू की सेवा में पहुंचते हैं और कहते हैं २ "हे
तीर्थ निर्माता के रूप में कमलसिंह का स्मरण महाकवि, मेरे पास शयनासन, छत्र, चमर, ध्वजा,
यथार्थ ही है । ग्वालियर में जो सहस्रों जन मूर्तियाँ ४ हाथी, घोड़े, रथ, प्राम, नगर, देश, मणि, मोती,
निर्मित हुई हैं, उनमें से अधिकांश का निर्माण उक्त बन्धु-बान्धव मादि सभी भरपूर उपलब्ध है, भौतिक
कमलसिंह की कृपा से ही हमा है। गोम्मदेश्वर की सामग्री की कोई भी कभी नहीं है, किन्तु मुझे यह
बाहुबलि-प्रतिमा का स्मरण करने वाली ५७ फीट सारा का सारा वैभव फीका-फीका लगता है क्योंकि
ऊंची प्रादिनाथ की मूर्ति के निर्माता एवं प्रतिष्ठापक मेरे पास काव्यरूपी मुन्दर मरिण नहीं है (लल्भइण
भी सम्भवतः यही कमलसिंह हैं और रइधू उसके कन्व माणिक्कु भव्वु)।" फिर आगे वे पुनः कहते
प्रतिष्ठाचार्य । चतुर्विध संघ का भार ग्रहण करने से हैं ३ "मनुष्य की प्रायु मौ वर्ष की होती है, जिसमें
उन्हें सिंघई, संववी प्रथवा संघपति पद से भी से प्राधी प्रायु सोने में और बाकी की मायु खान
विभूषित किया गया था। ग्वालियर के सांस्कृतिक पीने में धनार्जन करने में, विविध मनोरंजन करने
उत्थान में निस्सन्देह ही कमलसिंह संघवी का बड़ा में, रोग, शोक, चिन्ता प्रादि में समाप्त हो जाती है
भारी योगदान है उसने स्वर्गों के सभी सुखों को वहाँ और धर्म साधन की बात मन में प्रा ही नहीं पाती।
लाकर उपस्थित कर दिया था, इसीलिये कवि ने उसे प्रतः मुझ पर प्राप महान कृपा कीजिये तथा ऐसी
भरत क्षेत्र की इन्द्रपुरी एवं स्वर्ग-गुरु की संज्ञा रचना का प्रणयन कर दीजिये जिसमें 'सम्यक्त्व' की
दी है। चचों रोचक शैली में हो। इस पुण्य कार्य को करके प्राप मेरी सम्पत्ति का सदुपयोग करा दीजिये।" एच्छु जि भारहि खेत्ति अरिग पसिद्धरणं इंदउरु ।
गोवायलु गामेण तं जइवरणइ तियस्स गुरु ॥ उक्त कमलसिंह संघवी ग्वालियर-राज्य की
सम्मत्त. शरा-१० राजनीति के विधायक तो थे ही किन्तु अग्रवाल कमलसिंह के प्राग्रह से कवि ने सम्मत्त गुणजाति के गौरव एवं जैन समाज साहित्य एवं कला गिहाणकव्य (सम्यक्त्व गुणनिधान काव्य) की के महान संरक्षक भी थे। रइधू ने उन्हें गोपाचल रचना की उसमें कुल चार सन्धियां एवं १०४ करको श्रेष्ठ तीर्थ बना देने वाला कहा है और उनकी वक हैं। रइधु ने प्रबन्धात्मक पद्धति को लेकर जिस
२-सम्मत्त गुण गिहाण कव्व १/७ ३-सम्मत्त गुण मिहाग कन्द १/८ ४-ग्वालियर दुर्ग की जैन मूर्तियों के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी के लिये श्री महावीर जैन विद्यालय
(बम्बई) स्मृति ग्रन्थ में प्रकाशित 'ग्वालियर-दुर्ग के कुछ जैन मूर्ति निर्माता एवं महाकवि रइधू"
नामक मेरा शोध-निबन्ध पढ़िये । ५-सम्मन १।१३ । ७. ६-यह प्रथ ऐ०१० सरस्वती भवा व्यावर में हस्तलिखित रूप में सुरक्षित है!