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जैन समाज के आन्दोलन
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शास्त्रार्थ करे और वह सब लिखित होगा। क्योंकि ही मुझे उसके लिये जैन समाज में एक नया सम्प्रमें अपने नाम से सामने प्राना नहीं चाहता था। दाय ही खड़ा क्यों न करना पड़ता। परन्तु एक सव्यसाची के नाम से ही सबको उत्तर देता था। दिन चिन्तन करते करते जो नया प्रकाश मिला इस प्रकार ब्रह्मचारी जी की ढाल भी में ही था उसने यह मोह छड़ा दिया। पौर तलवार भी।
___ मैंने सोचा "मैं जैनधर्म को बिल्कुल शुद्ध करने सव्यसाची के लेखों का इतना असर जरूर हुमा
के लिये उसको सब कमजोरियां हटा रहा हूँ और कि विधवा विवाह को लोग जैनधर्म की बात
जो त्र.टियां देखता हूँ वह सब भर रहा हूँ अगर इसी समझने लगे और उसके बारे में जो घृणा का भाव
नीति से मैं संशोधन अन्य घों का करू तो
धर्मों में अन्तर क्या रह जायगा तब मैं सिर्फ जैन था वह दूर हो गया। कुछ विधवा विवाह हुए भी ।
धर्म का ही संशोधन क्यों कर रहा है। इसलिये तो इस बात का मुझे दर्द होता था कि जैनधर्म को बहत सी बातें प्राधुनिक विज्ञान से मेल
कि मेरे पिता जैन थे । इसलिये कि बाल्यावस्था से मुझे नही खाती । इसके कारण प्राज का विद्यार्थी जन
वही धर्म मिला। परन्तु जैनधर्म को अच्छा धर्म धर्म के बारे में अरुचि और प्रश्रद्धा व्यक्त करता
समझ कर जनपिता के यहाँ पैदा होने के लिये क्या है। इसलिये मेरे मन में विचार प्राया कि जैनधर्म
मैने पिता चुना था । अकस्मात ही मुझे जैन पिता का इतना संशोधन कर दिया जाय कि यह प्राधुनिक
मिल गया । बुद्धि पूर्वक मैंने पिता चुना नहीं । ऐसी विज्ञान से टक्कर ले सके । इसी समय बाब छोटे- हालत में अन्य धर्म का भी पिता मिल सकता था लालजी ने अपने सब विचारों को प्रकट करने की।
. और मैं उसही धर्म के गीत गाने लगता । वास्तव प्रेरणा दी। इसलिये 'जैनधर्म का मर्म' शीर्षक
में यह प्राकस्मिकता सत्य की निर्णायक नहीं है। देकर मैने एक लेख माला 'जैन जगत' में प्रकट
इसके लिये तो बिल्कुल निर्मोह बनकर निष्पक्ष दृष्टि की। यह साढ़े तीन वर्ष तक लिखी गई और बाद
से विचार करना चाहिये ।" बस ! इस विचार मतीन खण्डों में करीब बारह सौ पृष्ठों में 'जैन
ने मुझे धार्मिक पक्षपात से या मोह से मुक्त बना धर्म मीमांसा' के नाम से प्रकट हई। इसके विरोध
दिया। मैं साधारणतः सभी धर्मों में समभावी
निष्पक्ष मान्दोलक बन गया । और इनही विचारों में भी लेख लिखे गये और उनके उत्तर में भी एक लेख माला और लिखी गई।
का मूर्तिमन्त रूप बना 'सत्य समाज'। यह सन्
१६३४ की बात है । इसके बाद जैन जगत का नाम खैर इस लेखमाला में में दो कार्य करता था। बदलकर सत्यसन्देश कर दिया गया। जब मैंने जैनधर्म की जो बात माधुनिक विज्ञान से मेल नहीं वर्धा में सत्याश्रम बनाया तब 'सत्यसंदेश' का स्वाती थी उसे में निकाल देता था। और जो कमी प्रकाशन भी वहीं से होने लगा। और जैन समाज मालम होती थी उसे जोड़ देता था। इस प्रकार का सम्बन्ध करीब करीब उसी ढंग से छूट गया जैसा जैनधर्म को मैं परिपूर्ण और शुद्ध बनाता जाता था। किसी लड़की का सम्बन्ध विवाह के बाद पीहर से यह सब चिकित्सा में जैनधर्म के मोह के कारण जाता करता था पर जैन समाज मेरे इस प्राचरण को बाबू छोटेलालजी निर्मोह तो नहीं हो पाये। नहीं समझ पा रहा था इसलिये मेरा विरोधी था। मेरे विचारों से पूरी तरह मेल भी बैठा नहीं पाये यदि मेरा यह मोह बना रहता, तो में किसी के भी फिर भी मेरे विचारों की कद्र करते रहे और सत्याविरोध की परवाह न करके जीवन के अन्त तक श्रम को बीस हजार से अधिक को भेंट बिना मांगे जैनधर्म संशोधन का कार्य करता रहता । भले ही मुझे दी ऐसे कद्रदां वास्तव में दुर्लभ हैं। .