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________________ बाबूजी : एक संस्मरण साहू श्री शान्तिप्रसादजी जैन बाबू छोटेलाल जी के सम्बन्ध में लिखने के समस्यामों की चर्चा करते, प्रत्येक दिशा में जो काम लिए जब-जब उद्यत हमा विशेष कर भनेकान्त' के हमा है और जो करना है उसकी व्यवस्था प्रादि के स्मृति अंक के लिए. तो उनके साथ घनिष्ट संपर्क के बारे में विचार विनिमय करते और प्रावश्यक बातों पिछले पच्चीस-तीस वर्षों के इतिहास पर मन-ही- की ओर ध्यान दिलाते। उनकी बातचीत सदा ही मन विचार करता रहा और लिखने के योग्य अनेक एक झरोखा थी जिसके द्वारा स्थानीय तथा बाहर घटनाएं, संस्मरण और विचारों का प्रादान-प्रदान की सामाजिक गतिविधियों का संपूर्ण चित्र मेरी दिखाई दिया किन्तु वह सब स्थिर होकर लिखना दृष्टि में प्रा जाता था। व्यवसाय के कामों से मंभव नहीं हुमा । स्मृति ग्रन्थ के लिए संक्षेप में विरक्त होने के बाद अपने जीवन के अन्तिम १५ वर्ष अपना अभिनन्दन पोर श्रद्धांजलि व्यक्त कर रहा हूँ। उन्होंने जैन समाज और जैन संस्कृति की सेवा में पूरी लगन के साथ अर्पित कर दिये । मुझे बराबर बाय छोटलालजी के प्रति मेरे मन में जितना लगा है कि बाबू छोटेलालजी के स्वास्थ्य ने उनका प्रादर है, और उन्हें मुझसे, मेरे परिवार से जितना साथ दिया होता, यदि उन-जैसी लगन के दो चार स्नेह था वह अविस्मरणीय है। वे स्नेही थे. हित कार्यकर्ता उन्हें मिल जाते तो समाज की अनेक चिन्नक थे, और सतत सहयोगी थे। सन १९४४ में महत्त्वपूर्ण योजनामों का सफल-रूप सामने प्राया वीर शासन जयन्ती के अवसर पर कलकसे में होता और समाज का, संस्कृति का, हित कई गुना एक बड़े पायोजन में उनके साथ दायित्व लेने अधिक हुमा होता । अपने बल-बूते पर अपनी एकांत का मेरा पहला अवसर था। उस अवसर साधना पर उन्होंने जो किया, जो वे कर सके, वह पर सर सेठ हकमचन्दजी सभापति थे, मैं स्वाग काम महत्त्व का है। जैन साहित्य के संदमों का ताध्यक्ष था और वे संयोजक तथा मन्त्री। उस संकलन, 'जन चिब्लियोग्राफी' के रूप में स्वयं इतना समय से उनकी लगन, कर्तव्य निष्ठा. विद्वानों के बड़ा काम है जो अकेले व्यक्ति के लिए बहुत बड़ी प्रति वात्सल्यभाव, जैन दर्शन, जैन पुरातत्व, जैन उपलब्धि है। उदयगिरि खंडगिरि के महत्त्व को साहित्य के प्रचार-प्रसार, शोध-खोज के लिए उनकी ऐतिहासिक प्राधार पर प्रतिष्ठित करने और इस चिन्ता तथा मननशील स्वभाव की जो छाप मेरे मन तीर्थ को भारतवर्ष के मानचित्र पर उजागर करने पर पड़ी वह सदा पमिट रही। यह ठीक ही है कि की दिशा में भी उन्होंने अद्वितीय काम किया। वे व्यक्ति नहीं, एक संस्था थे। जब-जब वे मिलते-पोर कलकत्ते में रहते हुए ऐसा कोई सप्ताह सामाजिक और सांस्कृतिक कार्यों के लिए नहीं बीतता था अब एक-दो बार वे मिल न लेते उनके मन में जो लगन थी। वह उन्हें रात-दिन हों तब-तब ये अनेक सामाजिक और सांस्कृतिक व्यस्त रखती थी। समाज की प्रमुख संस्थानों
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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