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एक सहज प्रेरक व्यक्तित्व
डॉ० देवेन्द्र कुमार शास्त्री
बार छोटेलालजी का व्यक्तित्व उस सरल, स्निग्ध एवं स्वच्छ चांदनी की भांति था जिसने अपने शीतल कर निकरों से सहज ही भारतीय जन-मानस को प्राप्यायित किया है। जिस में मानस सी पवित्रता, ज्ञान- रश्मियों सी प्रखरता और हिम-सीकरों सी तरलता एवं-दीप्ति थी और जो अपने लिए कुछ नहीं पर दूसरों के लिए सब कुछ थे। जिस ने अनेक बाधाओं को झेल कर अपना निर्माण किया और जो देश तथा समाज की सेवा में विकीर्ण हो गया। जो समाज एवं संस्कृति का सजीव विग्रह था। जिस में श्रात्मनिष्ठा, तत्परता एवं लगन थी । ऐसे सत्य शोधक तथा प्रन्वेषक के रूप में त्यागमूर्ति बाबू छोटेलालजी का जीवन चित्र मेरे अन्तर्मन में उभर कर याता है।
सन् १६६१ की बात है। मई का महीना था । मैं शोध कार्य के सिलसिले में दिल्ली गया था । तभी बाबूजी से मेरा प्रथम परिचय वीर सेवा मन्दिर के विशाल भवन में हुआ । मेरे कार्य श्रीर उत्साह को देख कर बाबूजी को बड़ी प्रसन्नता हुई । और उससे मेरा मन भी आल्हादित हुआ कि समाज में अभी ऐसे सत्सेवी तथा पारखी विद्यमान हैं जो साहित्य एवं संस्कृति विषयक शोध कार्य की सराहना कर उसका वास्तविक मूल्यांकन करने वाले हैं। धीरेधीरे मुझे यह भी पता चला कि बाबूजी भारतीय साहित्य, संस्कृति एवं पुरातत्त्व आदि विषयों में केवल रुचि ही नहीं रखते वरन् स्वयं गम्भीर जयन करते और अन्य विद्वानों को उसके लिए प्रेरित करते थे। यही नहीं, सभी प्रकार के आधुनिक साधन एवं तत्संबंधी सामग्री जुटाने और अन्य सहायता पहुंचाने में भी सक्रिय भाग लेते है । उनको
इस मूक लगन तथा सेवा से प्रभावित होना स्वाभाविक ही था। मैं क्या, मेरे जैसे अन्य नवयुवक भाज देश, समाज तथा संस्कृति की सुरक्षा एवं उद्धार के लिए कई प्रकार की संविधानों में कार्य करना चाहते हैं पर उचित निर्देशन, पर्याप्त सामग्री का प्रभाव तथा किसी प्रकार का साहाय्य एवं प्रोत्साहन न मिलने के कारण उनका उत्साह बिखर जाता है । मुझे भलीभांति स्मरण है कि उन दिनों अस्वस्थ होने पर भी बाबूजी अध्ययन और मनन में अपना अधिक समय लगाते थे और केन्द्रीय पुस्तकालय का भरपूर उपयोग करते थे। मुझे भी उन से प्रेरणा प्राप्त हुई और ज्ञान-संवर्द्धन तथा विकास में
बहुत कुछ योग मिला। में कई दिनों तक उन के साथ रहा । मैने देखा कि वे भीतर और बाहर से समान है तथा विविध प्राधिव्याधियों से संत्रस्त रहने पर भी वे दूसरों की भलाई और सहायता के लिए तत्पर रहते हैं तथा विद्वानों की सहायता के लिए तो सभी प्रकार से प्रस्तुत रहते है । प्रतएव मेरे लौटने के प्राग्रह करने पर भी वे कुछ दिनों तक मुझे रोके रहे और अपने ज्ञान तथा अनुभवों का लाभ प्रदान करते रहे। उन्होंने मुझे एक यह सुझाव भी दिया कि मैं हिन्दी के साथ ही अंग्रेजी में भी लिखना प्रारंभ कर दूं, क्योंकि बंगाल तथा दक्षिण एवं अन्य देशों के विद्वान् जैन साहित्य के सम्बन्ध में नई जानकारी पाने के उत्कट अभिलाषी हैं पर हिन्दी न जानने से वे लोग इससे वञ्चित रहते हैं । बाबूजी का यह परमोपयोगी सुझाव भाज भी मेरे हृदय पटल पर अंकित है और उसके लिए यह जन कृतज्ञ है ।
यथार्थ में बापूजी का व्यक्तित्व बहुमुखी था । श्रापने सरल तथा निश्छल भाव से समाज की जो