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वाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रथ से चोवरों के विषय में ज्ञातव्य सामग्री प्रस्तुत की यूखोन्मुखराजिरंजितोपसध्यानाम्, उत्त० ८२) यहां गयी है।१३ चीवर कपड़ों के अनेक टुकड़ों को संस्कृत टीकाकार ने अधोवस्त्र ही प्रर्थ किया है। एक साथ सिलकर बनाए जाते हैं।
परिधान और उपसंख्यान में क्या अन्तर था, अबान-पाश्रमवासी तपस्वियों के वस्त्रों यह स्पष्ट नहीं होता। अमरकोषकार ने दोनों के लिए यशस्तिलक में प्रवान शब्द पाया है।१४।
को अधोवस्त्र कहा है। हेमचन्द्र ने भी दोनों को परिधान-अधोवस्त्रों में सोमदेव ने परिधान अधोवस्त्र कहा है ।१२° यशस्तिलक के संस्कृत और उपसंख्यान शब्दों का उल्लेख किया है । एक
टीकाकार द्वारा एक स्थान पर प्रधोवस्त्र और एक उक्ति में सोमदेव कहते हैं कि जो राजा अपने देश स्थान पर उत्तरीय प्रथं करने से प्रतीत होता है की रक्षा न करके दूसरे देशों को जीतने की इच्छा कि टीकाकार को उपसंख्यान के पर्थ का ठीक पता करता है वह उस पुरुष के समान है जो धोती खोल नहीं था। अमरकोपकार ने अधोवस्त्र के लिए कर सिर पर साफा बान्धता है।'१५ अमरकोष- उपसंव्यान और उत्तरीय के लिए संज्यान २१ पद कार ने नीचे पहनने वाले वस्त्रों में परिधान की दिया है। सम्भवतया इसी शब्द व्यवहार से प्रमित गरणना की है। बुन्देलखण्ड में अभी भी घोती हो कर टीकाकार ने यह प्रर्थ कर दिया। को पर्दनी या परदनिया कहा जाता है, जो इसी गुह्या-गुह्या का उल्लेख शंखनक नामक परिधान गब्द का बिगडा हुअा रूप है। दूत के वर्णन में हुअा है । शंखनक ने पुराने गोन
उपसंत्र्यान-उपसंव्यान का दोबार उल्लेख की गुह्या पहन रखी थी ।।२२ गुह्या . का अर्थ है। एक कथा के प्रसंग में एक प्रध्यापक बकरा श्रुतसागर ने कच्योटिका किया है । १२३ खरीदता है और अपने शिष्य से कहता है कि इसे बुन्देलखण्ड में बिना सिले वस्त्र को लंगोट की उपसंध्यान से अच्छी तरह बांध कर लाना।" सरद पहनने को कछटिया लगाना कहते हैं। यहां पर संस्कृत टीकाकार ने उपसंव्यान का अर्थ
यहां गुह्या से मोमदेव का यही तात्पर्य प्रतीत
यो पर उत्तरीय वस्त्र किया है।१८
होता है। राजमाता ने सभा मंडप में जाते समय उप- हंसतूलिका--हंसतूलिका का उल्लेख सोमदेव मंव्यान धारण किया था। (अरुणमणिमौलिम- ने अमृतमति महारानी के भवन के प्रसंग में किया
११३. महावग्ग, चीवरक्खन्धकं । ११४. अपरगिरिशिखराश्रयाश्रमवासतापसावानवितानितधातुजलपाटलपटप्रतानस्मृशि, यश० उत्त. पृ०५ ११५. प्रकृत्वा निजदेशम्य रक्षा यो विजिगीषते मः नृपः परिधानेन वृत्तमोलिः पुमानिव ।।.
यश. स. पू.,पृ. ७४ । ११६. अन्तरीयोपसंव्यानपरिधानान्य घों शुके । अमरकोष, २, ६, ११७ । ११७. तदतियलमुपसंव्यानन बद्धवानीयताम् , यश. उत्त. पृ. १३२ ११८. उपसंव्यानन उत्तरीयवस्भरण, वही, सं.टी.। ११६. देखिए-उद्धरण ११६ १२०. परिधानं त्वधोंशकए, अन्तरीयं निदसनमुपसंव्यानमित्यपि । प्रभिधान चिन्तामणि १२१. संव्यानमुत्तरीयं च, अमरकोष, २, ६,११८ १२२. पटच्चरपर्यागगोरगीगृह यापिहितमेहनः, यश. सं. पू., पृ. ३९८ १२३. गृह या कच्छोटिका, वही, सं. टी.