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प्राचीन भारतीय वस्त्र और वेश भूषा
पण्डालक-चण्डातक का उल्लेख सोमदेव ने से एकदम सटा हा वस्त्र पहने थे, जिससे वे कौपीनघण्हमारी देवी का वर्णन करते हुए किया है । गीला धारी थेबानल की तरह लगते थे।०७ चमड़ा ही उस देवी का चण्डायक था।
कौपीन एक प्रकार का छोटा चादर कहलाता चण्डातक का अर्थ अमरकोषकार ने जांघों तक था जिसका उपयोग साधु पहनने के काम में पहुंचने वाला प्रधोवस्त्र किया है। यह एक करत च। प्रकार का जांघिया या घंघरीनमा वस्त्र था. जिसे उस्तरीय-उत्तरीय का उल्लेख भी तीन बार स्त्री और पुरुष दोनों पहनते थे।१०४
हुमा है । मुनिकुमार युगल शरीर ही शुम्र प्रथा के
कारण ऐसे प्रतीत होते थे, जैसे उन्होंने दूकूल का __उष्णीव - शिरोवस्त्र में सोमदेव ने उष्णीष
उत्तरीय प्रोढ़ रखा हो।'०८ कुमार यशोधर के और पट्टिका का उल्लेख किया है। उत्तरापथ के
राज्याभिषेक का मुहूर्त निकालने के लिए जो ज्योतिषी सैनिक रंग-बिरंगा उष्णीष पहनते थे।०५ दक्षिणापथ
लोग इकट्ठे हुए थे. वे दुकूल के उत्तरीय से अपने मुह के सैनिकों ने बालों को पट्टिका से कस कर बांध
ढके थे। " रखा था।
राजमाता चन्द्रमति ने संध्याराग की तरह सोमदेव के उल्लेख से उष्णीष के प्राकार प्रकार हलके लाल रंग का उत्तरीय प्रोढ रखा था (संध्याया बांधने के ढंग पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता, केवल रागोत्तरीयवसनाम्, उत्त. ८२)। पोड़ने वाले इतना ज्ञात होता है कि उष्णीष कई रंग के बनते चादर को उत्तरीय कहा जाता था। अमरकोषथे। सम्भव है इनकी रंगाई बांधने के ढंग से की कार ने उतरीय को प्रोडने वाले वस्त्रों में गिनाया जाती हो । बुन्देलखण्ड के लोकगीतों में पंचरंग पाप है।" (उष्णीष) के उल्लेख पाते हैं।
चीवर-एक उपमा अलंकार में चीवर का डा. मोतीचन्द्रजी ने साहित्य का मरहत, सांची
उल्लेख है। चीवर की ललाई से अन्त करण के और अमरावती की कला में अकित अनेक प्रकार अनुराग की उपमा दी गयी है। १२ की पगड़ियों का वर्णन 'भारतीय वेशभूषा' पुस्तक में बौद्ध भिक्षुमों के पहिनने मोढ़ने के काषाय वर्ण किया है।
के चादर चीवर कहलाते थे। महावग्ग में चोवरकोपोन-कोपीन का उल्लेख सोमदेव ने एक पखन्धक नाम का एक स्वतन्त्र प्रकरण है. जिसमें उपमालंकार में किया है । दाक्षिणात्य सैनिक जांघों भिधुनों के लिए तरह तरह की कथाओं के माध्यम
१०३. चण्डातकमा चर्मारिण, यश०सं०पू०, पृ० १५० १०४. मोरकं वरस्त्रीणां स्याञ्चण्डातकमस्त्रियाम्, अमरकोष, २, ६, ११६ । १०५. मोतीचन्द्र-भारतीय वेशभूषा, पृ० २३ १०६. भागभागापितानेकवर्णवसनवेष्टितोष्णीषम्, यश० सं०पू०, ४६५ १०७. पट्टिकाप्रतानघटितोद्भटट्म, वही, पृ० ४६१ ।। १.८. प्रावंक्षणोश्विप्तनिबिडनिवसनं सकोपीनं वैखानसवृन्दमिय, यश• सं० पू०, पृ० ४६२ ११६. वपुप्रभापटलदुकूलीतरीयम्, यश. स. पू., पृ०, १५६ ११. उत्तरीयदुकलांचलपिहितविम्बिना, वही, पृ० ३१६ १११. संव्यानमुत्तरीयं च, अमरकोष, २, ६, ११८ ११२, चीवरोपरागनिरतान्तःकरणेन, यश उत्त०, पृ.८