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प्राचीन भारतीय वस्त्र और वेश-भूषा
। प्रमृतमति के पलंग पर हंसतुलिका बिछी थी, जिस पर तरंगित दुकूल का चादर बिछा था । ११४ संस्कृत टीकाकार ने हंसतुलिका का प्रथं प्रास्तरण विशेष किया है । १२४
उपधान - तकिए के लिए सोमदेव ने प्रत्यन्त प्रचलित संस्कृत शब्द उपधान का प्रयोग किया है । अमृतमति के अन्तःपुर में पलंग के दोनों और दो तकिए रखे थे, जिससे दोनों किनारे ऊंचे हो गये थे । १२६
कन्था - यशस्तिलक में कन्था का उल्लेख दो वार श्राया है। शीतकाल के वन में सोमदेव ने लिखा है कि इतने जोरों की ठंड पड़ रही थी कि गरीब परिवारों में पुरानी कन्याएं विथड़ा हुई जा रही थीं । १२७ एक अन्य स्थल पर दु.स्वप्न के कारण राज्य छोड़ने के लिए तत्पर सम्राट यशोधर को राजमाता समझाती है कि जू के भय से क्या कन्या भी छोड़ दी जाती है ।१२६
कन्या, जिसे देशी भाषा में कथरी कहा जाता है, अनेक पुराने जींशी कपड़ों को एक साथ सिल कर बनाए गये गद्दे को कहते हैं। गरीब परिवार जो ठंड से बचाव के लिए गर्म या रूई भरे हुए कपड़े नहीं खरीद सकते वे कन्थाएं बना लेते हैं।
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प्रोढ़ने और बिछाने दोनों कामों में कन्याओं का उपयोग किया जाता है। मोटी होने से इन्हें जल्दी से धोना भी मुश्किल होता है, इसी कारण इनमें हू भी पड़ जाती है।
नमत १२६ - यशस्तिलक में नमत (हि० नमदा) का उल्लेख एक ग्राम के वर्णन के प्रसंग में प्राया हैं। उज्जयिनी के समीप में एक ग्राम के लोग नमदे और चमड़े को जीनें बना कर अपनी भाजीविका चलाते थे । १३० संस्कृत टीकाकार ने नमत का अर्थ ऊनी खेल या चादर किया है । १३१
नमदे भेड़ों या पहाड़ी बकरों के रोएं को कूट कर जमाए हुए वस्त्र को कहते हैं। काश्मीर के नमदे प्रभी भी प्रसिद्ध हैं ।
निचोल --- यशस्तिलक में निचोल के लिए निवल शब्द श्राया है । १३२ संस्कृत टीकाकार ने एक स्थान पर निचोल का अर्थ कंचुक किया है 33 तथा दूसरे स्थान पर प्रावरणवस्त्र किया है । १३४ सुन्दरलाल शास्त्री ने भी इसी के आधार पर हिन्दी अनुवाद में भी उक्त दोनों ही अर्थ कर दिये हैं । ११५ प्रसंग की दृष्टि से निचल का अर्थ कंचुक यहां ठीक नहीं बैठता । श्रमरकोषकार ने
१२४. तरंगित दुकूलपट प्रसाधितंतूलिकम् यश० उत्त०, पृ० ३० १२५. हंसतुलिका प्रास्तररणविशेषः, वही, सं० टी० ।
१२६. उपधानद्वयौतम्मितपूर्वापर भागम्. यश० उरत०, पृ० ३०
१२७. शिथिलयति दुर्विचकुटुम्बेषु जरत्कन्थापटच्चराणि यश० सं० पू, पृ० ५७
१२८, मयेन किं मन्दविसर्पिणीनां कन्यां त्यजन्कोऽपि निरीक्षितोऽस्ति । यश० उत्त०, पृ० ८
१२६. मुद्रित प्रति का तमत पाठ गलत है ।
१३०. नमताजिनजेरण जीवनोटजाकुले, यश० उत्त० पृ० २१८
१३१. नमतम् ऊमियास्तरणम्, वही, सं० टी० ।
१३२. जगद्वलयनीलनिचलेष, निश्चलसनाथनुपतिचापसपादिपु, यश० सं० पू० पृ० ७१-७२
१३३. नीलनिम्चिल: कृष्ण वर्णनिचोलकः, कुचुकः, वही, सं० टी० ।
१३४. निचलसनाथानि प्रावरणवस्त्रसहितानि, वही, सं० टी० । १३५. सुन्दरलाल शास्त्री - हिन्दी यशस्तिलक, पृ० ४०