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"Cultural Heritage of Bengal in Relation to Jainism." लेखकडा० एस० सी० मुकर्जी । जैनधर्म से सम्बन्धित जो विरासत बंगाल को मिली है उसकी महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करामा ही इस लेख का उद्देश्य है जिसमें लेखक पर्याप्त सीमा तक सफल हुप्रा है ।
"Social and Cultural Glimpses from the Kuvalayamala." लेखकप्रो० डा० ए० एन० उपाध्ये । कुवनयमाला श्री उद्योतन सूरी की प्राकृत भाषा की एक रचना है। इस रचना का महत्व इस कारण से बढ़ जाता है कि इसके अध्ययन से तत्कालीन सामाजिक
और सांस्कृतिक गतिविधियों, रीति रिवाजों प्रादि का वर्णन मिलता है । इसके अध्ययन से कई रोचक बातों का पता चलता है। उदाहरणतः उस समय सोप्पार्य नामक नगर में व्यापारियों का एक क्लब था जहां विदेशी व्यापारी अपनी यात्रा के अनुभव व वृत्तान्त दूसरे व्यापारियों की सुनाते थे भौर वे इस प्रकार की जानकारी भी दूसरों को प्रदान करते थे कि विभिन्न स्थानों पर क्या क्या वस्तुएं प्राप्य हैं और कौन वस्तु किस जगह अधिक मूल्य पर बेची जा सकती है जैसे :- पलास के फूलों की एवज स्वरण द्वीप से सोना मिल सकता था। नीम की पत्तियां बेच कर रत्न द्वीप से रत्न प्राप्त किये जा सकते थे। प्रादि ।
___ "Jainism in Kongunadu." लेखक-श्री वी० एन० श्रीनिवास एम०ए०, बी० ए० (मानर्स) । इस में दक्षिण के कोंगूनाडू प्रदेश से संबंधित जैन इतिहास की महत्वपूर्ण सामग्री की चर्चा करते हुए यह सिद्ध किया गया है कि कोंगूनाडू जो कि वर्तमान कोयम्बटूर जिले का ही एक भाग है ईस्वी सन् से तीन शताब्दी पूर्व भी जैन धर्म का एक महत्वपूर्ण केन्द्र स्थल था। इतिहास के विद्वानों के लिये लेख महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है।
'A Note on Jainism in Orissa." लेखक-श्री K.S. Behira । लेखक उत्कल यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग की स्नातकोत्तर व क्षात्रों के व्याख्याता हैं अतः उनके निष्कर्ष एक अधिकृत व्यक्ति के निष्कर्ष हैं। लेखक के मतानुसार उड़ीसा में जैन धर्म का अस्तित्व भगवान महावीर से भी पहले कमसे कम ईसा से पाठ शताब्दी पूर्व तक था और वहां इस धर्म को कई बार उत्थान और पतन का सामना करना पड़ा तथा जैन धर्म की उड़ीसा को धर्म, कला, भवन निर्माण, भाषा और साहित्य के क्षेत्र में बड़ी महत्वपूर्ण देन है।
__"The Electro Magnetic Field in Man." लेखक-श्री ज्ञानचन्द जैन, एम. ए.। जैन सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक सांसारिक प्राणी के भौतिक शरीर के अतिरिक्त तेजस
और कार्माण ये दो शरीर और होते हैं । कार्माण शरीर में प्राकर्षण शक्ति होती है जो अपने कार्यों से भावी जीवन के लिये पुद्गलों का आकर्षण करता रहता है और तेजस शरीर का कार्य जीवन शक्ति प्रदान करना है । लेख में डा० कासवीवाल के मत की आलोचना करते हुए वर्तमान गैज्ञानिक आधार पर जैन धर्म के इस सिद्धान्त की पुष्टि की है । लेख गैज्ञानिक महत्व का है और वैज्ञानिकों को शोध के लिये एक नई दिशा प्रदान करता है। ऐसे लेखों से पता चलता है कि जैनधर्म के सिद्धान्त कितने गैज्ञानिक हैं।