SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इतिवृत्त का समर्थन अन्य प्रमाणों से भी होता है । लेख इतिहास के विद्वानों और छात्रों के लिए अत्यन्त उपयोगी है। "महाकवि रइधू युगीन अग्रवालों की साहित्य सेवा' डा० राजाराम जैन एम. ए. पी. एच. डो. की रचना है। इसमें अग्रवाल जातीय महाकवि रइधू और उनके समसामयिक अग्रवाल बन्धुमों को साहित्यसेवा का वर्णन किया गया है। लेख से अग्रवाल जाति के इतिहास के एक परिच्छेद का परिचय प्राप्त होता है।" वास्तव में जैन ग्रंथों की प्रशस्तियां केवल जैन इतिहास के लिए ही नहीं भारतीय इतिहास के लिये भी महत्त्वपूर्ण सामग्री प्रस्तुत करती हैं और उनके अध्ययन से इतिहास को कई विलुप्त कड़ियां जोड़ी जा सकती हैं । लेख संग्रह योग्य है। "हिन्दो आदिकाल के जैन प्रबन्ध काव्य" के रचनाकार श्री श्याम वर्मा, एम. एस. सी. एम. ए. (संस्कृत, अंग्रेजी एवं हिन्दी) हैं। प्रस्तुत निबन्ध में विक्रम की आठवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी तक के जैन प्रबन्ध काव्यों का संक्षिप्त पर्यालोचन किया गया है। लेखक ने महाकवि स्वयंभूदेव, महाकवि पुष्पदन्त, और हरिभद्रसरि की रचनाओं पर एक पालोचनात्मक दृष्टि डालते हुए कहा है कि इनकी विधानों, शैलियों, काव्यरूढ़ियों आदि की पूर्व परम्परा और परवर्ती काव्य पर प्रभाव विस्तृत अध्ययन के विषय हैं । हिन्दी साहित्य के इतिहास के अध्येताओं के लिए निबन्ध का महत्त्व स्पष्ट है । ___ "जैन संस्कृति में नारी के विविध रूप" श्री प्रेमसुमन एम. ए. रिसर्चस्कालर की रचना है जिसमें जैन संस्कृति में नारी की स्थिति, वैवाहिक परम्परा, बौद्धिक नारियां, कलाविशारद, वीरांगना, सती प्रथा, विधवा विवाह, बहुपत्नीत्व प्रथा पर्दाप्रथा, गणिकाएं, साध्वी नारियां, एवं स्त्रियों की निन्दा और प्रशंसा आदि विषयों पर विविध रूपों और दृष्टिकोणों से नारी का अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। 'जैन समाज के प्रान्दोलन" में सत्यसमाज के संस्थापक स्वामी सत्यभक्त ने जैनसमाज के पिछले साठ सत्तर वर्षों के आन्दोलनों का एक विहंगम सिंहावलोकन प्रस्तुत करते हुए अपने साथ बाब छोटेलालजो के सम्बन्धों पर प्रकाश डाला है। "मथुरा की प्राचीन कला में समन्वयभावना' के लेखक श्री कृष्णदत्त वाजपेयी हैं । लेख में लेखक ने मथुरा से प्राप्त प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री का विवेचन प्रस्तुत करते हुए निष्कर्ष निकाला है कि यहां के कुशल कलाकार अनेक देशी और विदेशी तत्वों तथा भारतीय धर्म एवं दर्शन को विविध धाराओं का समन्वित रूप प्रस्तुत करने में सफल हुए हैं। पुरातत्व प्रेमियों और शोधकर्ताओं के लिए लेख का महत्व स्पष्ट है। "भट्टारक युगीन जैन संस्कृत साहित्य की प्रवृत्तियाँ"-लेखक-डा० नेमीचन्द्र शास्त्री, एम. ए. डी. लिट् पारा हैं। अध्ययनशील और विद्वान लेखक ने इस निबन्ध में १३वीं शती से १८वीं शती तक के भट्टारक युगीन 'पौराणिक चरितकाव्य," "लधुप्रबन्धकाव्य," "संदेश या दूतकाव्य" प्रादि पन्द्रह प्रमुख साहित्यिक प्रवृत्तियों के विकास प्रादि पर मनन करने योग्य एवं
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy