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प्राचीन भारतीय वस्त्र और वेश-भूषा जिससे कौलिक (हि. कोली) शब्द बना । दोहरी बाण ने लिखा है कि शूद्रक ने जो दुकूल पहन रखे बादर या पान के रूप में विक्रयार्थ पाने के कारण वे अमृत के फेन के समान सफेद थे. उनके किनारों यह विकूल या दुकूल कहलाने लगा।" साहि- पर गोरोंचना से हंस मिथुन लिखे गये थे तपा त्यिक सामग्री की साक्षीपूर्वक इस विषय पर विचार उनके छोर कमर से निकली हुई हवा से फड़फड़ा करने से डा० साहब के इस कथन का समर्थन रहे थे।४४ युद्धक्षेत्र को जाते समय हर्ष ने भी हंसहोता है।
मिथुन के चिन्हयुक्त दुकूल का जोड़ा पहना था।" सोमदेव ने तीन बार सम्राट यशोधर को दुकूल प्राचारांग (२, १५, २०) में एक जगह कहा गया पहनने का उल्लेख किया है। बसन्तोत्सव के समय है कि पाक ने महावीर को जो हंस दुकूल का जोड़ा तो निश्चित रूप से सम्राट ने दो दुकूल धारण पहनाया था, वह जना
पहनाया था, वह इतना पतला था कि हवा का किये थे, क्योंकि यहां पर सोमदेव ने 'दकले' इस मामूली झटका उसे उड़ा ले जा सकता था। उसकी द्विवचन का प्रयोग किया है।४.
बनावट की तारीफ कारीगर भी करते थे। वह
कलाबतू के तार से मिला कर बना था और उसमें दूसरे प्रसंग में उद्गमनीय मंगल कहा है।"
हँस के प्रलंकार थे। अन्तगढ़सदामो (पृष्ठ ३२) के अमरकोषकार ने लिखा है कि धुले हुए वस्त्रों के
अनुसार दहेज में कीमती कपड़ों के साथ दुकूल के जोड़ों को (दो वस्त्रों को उद्गमनीय कहते हैं । ४२
जो भी दिये जाते थे। कालिदास ने भी इंस इससे यही तात्पर्य निकलता है कि सम्राट ने इस
चिन्हित दुकूल का उल्लेख किया है। किन्तु उससे प्रसंग में भी दुकूल का जोड़ा पहना था। तीसरे
यह पता नहीं चलता कि दुकूल एक था या जोड़ा स्थल पर फूल का विशेषण धवल दिया है।
था। इसी तरह भट्टिकाव्य में भी दो बार दुकूल इस समय भी सम्राट ने दुकूल का ही जोड़ा पहना
शब्द पाया है,४६ परन्तु उससे भी इसके जोड़े होने होगा । अन्यथा सोमदेव अधोवस्त्र के लिए किसी
या न होने पर प्रकाश नहीं पड़ता। गीतगोबिन्द अन्य वस्त्र का उल्लेख अवश्य करते।
में करीब चार बार से भी अधिक दुकूल का उल्लेख गुप्त युग मे तो किनारों पर हंस मिथुन लिखे हुमा है, उसी में एक बार "दुकूल" इस द्विवचन हुए दुकूल के घोड़े पहनने का माम रिवाज था। का भी व्यवहार हमा है।
३६. अग्रवाल-हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन-५०७६ ४०. गोरोचनापिंजरिते दुकूले, यश० सं० पू०, पृ० ५६२ ४१. गृहीतोद्गमनीयमंगलदुकूलः, यश २ उत्त० पृ० ८१ ४२. तत्स्यादुद्गमनीयं यद्धौतयोर्वस्त्रयोयुगम्, प्रमरकोष २, ६, ११३ । ४३. धृतधवलदुकूलमाल्पविलेपनालंकारः, यश०सं०पू०, ए०३२३ ४४. प्रमतफेनधवले गौरोचनालिखितहसमिथुनसनाथपर्यन्ते चारुचमरवायूप्रतितान्तदेशे दूकूले वसानम,
कादम्बरी, पृ०१७ ४५. परिधाय राजहंसमिथुनलक्ष्मणि सदृशे दुकूले, पृ. २०२ ४६. उद्धत, मोतीचन्द्र, भारतीय वेशभूषा, पृ० १४७-१४८ ४७. प्रामुक्ताभरणः सग्बी हंसचिह्नदुकूलवान्. रघुवंश १७४२५ ४८. उदक्षिपन्यदुकूलकेतून, भटिकाव्य, ३॥३४॥ अथ स वल्कदुकूलकुपादिभिः, वही १११ ४६. शिथिलीकृतजघनदुकूलम्, गीतगोविन्द २,६, ३ । श्यामलमृदुलकलेवरमण्डलमधिगतमोरकूलम्,
वही ११, २२, ३ । विरहमिवापनयामि पयोधररोधकसुरसिदृकूलम्, वही, १२, २३, ३ ५०. मंजुलवंबुलकु जगतं विचकषं करेण दुकूले, वही १, ४, ६ ।