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बायू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ वर्णन करते हुए सेही के द्वारा परेशान किये जाते पहिने । ४ अन्य प्रसंगों में भी दुकूल के उल्लेख रल्लकों का उल्लेख किया है।२७
हैं । डा. मोतीचन्द्र ने दुकल का परा परिचय निम्न रल्लिका या रस्लक को अमरकोष कार ने भी प्रकार दिया हैएक प्रकार का कम्बल कहा है। जिस समय प्राचारोग के संस्कृत व्याख्याकार शीलांकाचार्य युवांगच्वांग भारत माया उस समय भारत. ने दुकूल को बंगाल में पैदा होने वाली एक विशेष वर्ष में इस वस्त्र का खूब प्रचार था। उसने प्रकारको रुई से बनने वाला वस्त्र कहा है.३५ अपनी यात्रा विवरण में होलाली अर्थात् रल्लक का किन्तु यह व्याख्या बारहवीं शती की होने से विश्व. उल्लेख किया है। उसने लिखा है कि यह वस्त्र सनीय नहीं है । निशीथ के चूणिकार ने दुकूल को किसी जंगली जानवर की ऊन से बनता था। यह दुकून नामक वृक्ष की छाल को कूट कर उसके कन भासानी से कत सकता था तथा इससे बने रेशे से बनाया जाने वाला वस्त्र कहा है। वस्त्रों का काफी मूल्य होता था।२६
अर्थशास्त्र से दुकूल के विषय में कुछ और भी सोमदेव ने एक अन्य प्रसंग पर प्रौर अधिक जानकारी मिलती है। इसके अनुसार बंगाल में m: हिा है कि रल्लकों के रोगों से कम्बल बनने वाला दुकूल सफ़ेद और मुलायम होता था। बनाये जाते थे, जिनका उपयोग हेमन्त ऋतु में किया पौंड देश के दुकूल नीले और चिकने होते थे तथा जाता था।३०
सुवर्णकुइया के दुकूल ललाई लिये होते थे। . दुकूल-सोमदेव ने दुकूल का कई बार उल्लेख कौटिल्य ने यह भी लिखा है कि दुकूल तीन तरह किया है। राजपुर में दुकूल और अंशुक की वैजयन्तियां से विना जाता था तथा बिनाई के अनुसार उसके (पताकायें) लगायो गयी थी ।३१ राज्याभिषेक के एकांशुक, अर्षाशुक, दयंशक तथा वयंशुक ये चार बाद सम्राट यशोधर ने धवल दुकूल धारण भेद होते थे।३६ किये।३२ बसन्तोत्सव के अवसर पर गोरोचना से डा० अग्रवाल ने दुकूल के विषय में एक प्रश्न पिंजरित दुकूल धारण किए ३ तथा सभामण्डप उठाया है। उन्होंने लिखा है कि "सम्भवतः दुकल (दरबार) में जाते समय उदगमनीय मंगल-दुकूल का अर्थ देश्य या प्रादिम भाषा में कपड़ा था,
२७. क्वचिनिः शल्यशल्लकशनाकाजालकोल्यमानरल्लकलोकलोकम् यश० उत्त०१०२०० । २८. अमरकोष ३॥६॥ ११६ २६. वाटस-युवांगच्यांगम ट्रावल्स इन इंडिया, भाग १, लन्दन १९०४ । प्रा०२० उडत, डा.
मोतीचन्द्र भारतीय वेशभूषा, पृ० ३०. रल्लकरोमनिष्पन्नकम्बललोकलीलाविलासिनी-हैमने महति । यश० सं० पू० ५७५ ३१. दुकूलाँशुकवैजयन्तीसंततिभिः, यश०सं०पू०१०१६ ३२. धृतधवलद्कूलमाल्यविलेपनालंकारः, वही, पृ०३२३ ३३. त्वं देव देहेऽभिनवे दधानो, गोरोचना पिजरिने दुकूले । वही, पृ० ५९२ ३४. गृहीतोद्गमनीयमंगलदुकूल, वही, उन० पृ०८१ ३५. दुकूलं गौणविषयविशिष्टकामिकम्, प्राचारांग २, वस्त्र० सू० ३६८ सं० टी० । ३६. दुगुल्लो रुक्खो नरस वागो धेतु उदूखले कुट्टिजति पागिएण ताव जाव भूसीभूतो ताहे कज्जति
एतेसु दुगुल्लो । निशीथ ७, १०-१२ । ३७. वांगकं श्वेतं स्निग्धं दुकूलं, पौण्डकं श्यामं मणिस्निग्ध, सौवर्णकुड्यक सूर्यवर्णम्, अर्थशास्त्र २०११ ३८. मणिस्निग्यौदकवानं चतुरत्रवानं व्यमित्रवानं च । एतेषामेकांशुकमध्यर्षद्वित्रिचतुरंशुकमिति । वही२.११