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भावालों का जैन धर्म में योगदान
सुरुचिपूर्ण हैं।
५ नेमिनाथ व्याहला, ६ फूलमाल पच्चीसी स्मरस की सरस चर्चा नवागन्तुक व्यक्ति पर ७ नेमिनाप बारहमासा और अनेक पद भी अपना प्रभाव अछूता नहीं छोड़ती थी। वह उनके बनाये हुए हैं । सभी रचनाए' सम्बोधक और सरस व्यवहार और तत्वचर्चा से भात्म-विभोर
हुए बिना नहीं रहता था । उसकी अभिलाषा पन्द्रहवें कवि द्यानतराय है,' जो प्रागरा सत्समागम से लाभ उठाने की प्रति समय रहती के निवासी थे। इनका गोत्र 'गोयल' था। कवि थी । परिणामस्वरूप उसका धार्मिक शैथिल्य दर के पूर्वज जलालपुर से भाकर भागरा में बसे थे। होकर श्रद्धा में दृढ़ता ला देता था। वह जैन धर्म कवि के पितामह का नाम वीरदास और पिता का का श्रद्धालु और अपने मानव जीवन को ऊंचा नाम श्यामदास था। कवि का जन्म सं० १७३३ उठाने की भावना को हृदयंगम कर लेता था। में हुमा था। बाल अवस्था में इनका लालन-पालन द्याननरायजी उन दोनों की शिक्षा से मानव जीवन बड़े प्रेम से हमा, और प्रारम्भिक शिक्षा भी की सफलता के रहस्य को पागये और प्राकृत मिली । उस समय उनकी जैनधर्म में कोई रुचि संस्कृत के अच्छे विद्वान बन गये। वे जैन धर्म का नहीं थी, किन्तु वे पिता से भागत धर्म का ही परिज्ञान कर उसकी शरण में भागए । सं० १७४८ प्राचरण करते थे। दैवयोग से कविवर के पिता मे १५ वर्ष की अवस्था में कवि का विवाह हो का सं०१७४२ में प्रचानक स्वर्गवास हो गया। गया, और वे गृहस्थ जीवन की सूहद्ध सांकलों से उस समय कवि की अवस्था ६ वर्ष की थी। जकड़ दिये गये, जिसमें राजी होकर जीव अपने पिता के स्वर्गवास का उनके जीवन पर बड़ा कतव्य को भूल जाते हैं। कवि ने १६ वर्ष की प्रभाव पड़ा, और घर-गृहस्थी का सारा भार अल्प अवस्था म अथात् स० १
अवस्था में अर्थात् सं० १७५२ में कार्तिक वदी अवस्था में उठाने को मजबूर होना पड़ा। परन्तु
प्रयोदशी के दिन प्रागरा में 'सूबोध पंचासिका' मात्मीयजनों और दूसरे साधर्मीजनों के सहयोग बनाई, भोर सं० १७५८ में उपदेश शतक, छहलढ़ा से कुछ समय अपना कार्य करते हुए भी शिक्षा सं० १७५८, और सं० १७८० में धर्म विलास, की ओर अग्रसर रहे । तेरह वर्ष की उम्र में जिसमें ४५ रचनाओं का संकलन किया गया है। इनका परिचय पं० बिहारीलाल और शाह मानसिंह ३३३ भाधात्मिक स्व-पर-सम्बोधक पद, चर्चा शतक जी से हो गया। दोनों ही महानुभाव जैनधर्म के बड़ी सुन्दर कृति है । सं० १७८१ में मागम विलास पच्छे जानकार थे और शक्त्यनुसार उस पर अमल की रचना हुई, जिसमें १५२ सर्वया तथा ५५ प्रन्य भी करते थे। उस समय मागरा में अध्यात्म शंली छोटी-छोटी रचनामों का संग्रह है। जिनमें प्रतिमा का बहुत जोर था। यत्र-तत्र जैन धर्म की चर्चा वहतरी सं. १७८१ में दिल्ली में बनाकर समाप्त खूब चलती थी । प्रागरा विद्वानों के समागम की है । संवत् १७८३ मे कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी के पौर तत्वचर्चा का केन्द्र सा बन गया था। फलतः दिन कवि ने साम्यभाव से अपने जड़ शरीर का वहां उस समय यदि कोई हाकिम या सद्गृहस्थ परित्याग किया था।' कवि की मृत्यु के बाद पहुँच जाता था तो वह उन विद्वानों की सत्संगति उनकी कृतियों का चिट्ठा उनके पुत्र लालजी ने से जरूर लाभ उठाने का प्रयत्न करता था । प्रध्या- पालमगंज वासी किसी झाझू नामक व्यक्ति को दे
१. विशेष परिचय के लिये देखों अनेकान्त वर्ष ११ किरण ४-५ पृ० १६१ १. संवत विझमन्टपति के गुण वसु शैल सितंश ।
कार्तिक सुकल चतुरदशी यानत सुर गंतूश ॥