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बाबू छोटेलाल जैन स्मृति प्रन्य टीका सं० १७१७ में भक्तामरस्तोत्र का पद्यानुवाद का नाम विनोदीलाल था। आपके बनाये हुए पद भी प्रापकी कृति है, कर्मप्रकृति को हिन्दी टोका और जकड़ी हैं जो स्व-पर-सम्बोधक हैं। जकड़ी (सं० १७१७ ) में मौर श्वेताम्बर चौरासी बोल भी प्रकाशित हो चुकी हैं। मापने बनाये थे।
___चौदहवें कवि विनोदीलाल हैं, इनके परदादा बारहवें कवि बुलाकीदास या बूलचन्द हैं, जो का नाम 'मस्र' और दादा का नाम 'पारस' था नन्दलाल पौर जैनुलदे के पुत्र थे । इनके पितामह और पिता का नाम 'दरिगहमल्ल' था । विनोदीलाल का नाम श्रवणदास और माता का नाम जैनुलदे
जैन सिद्धान्त के अच्छे विद्वान और कवि थे। या जैनी था जो प्रत्यन्त विदुषी थी। पं. उन्होंने लिखा है कि-"दंपन पायु वृषा मुझ बूलचन्द ने दिल्ली के जयसिंहपुरा में पंडित अरुण- गई, तीजे पन कुछ शुभमति भई ।" इससे स्पष्ट मणि से विद्या प्राप्त की थी। परुन्मरिण ने इन्हें है कि कवि की आयु के दो भाग बीत जाने पर हित के माथ विद्या पढ़ाई की । इन्होंने अपनी माता जैन धर्म की पोर विशेष प्राकृष्ट हुए थे और तभी की प्राज्ञा से 'पाण्डवपुराण' संवत १७५४ में रचनामों की पोर चित्त लगाया था। उनकी जो बनाया था, और प्रश्नोत्तर श्रावकाचार के तीन रचनाए मेरे प्रवलोकन में पाई है, उनका उल्लेख हिस्से जहानाबाद में सं० १७४७ में और चौथा निम्न प्रकार हैहिस्सा पानीपत में सं० १७६६ में समाप्त
१ भक्तामर कथा स० १७४७,२ सम्यक्त्व किया था ।
कौमुदी सं० १७४६,३ सिद्धचक्र कथा सं० १७५० तेरहवें कवि दरिगह मल हैं, जो वस्सदेशान्त- में औरंगजेब के राज्यकाल में बनाकर समाप्त र्गत 'सहजादपुर' नामक नगर के निवासी थे, की है । यद्यपि यह संस्कृत रचना का पद्यानुवाद जो गंगा के तट पर बसा हया था। इनका गोत्र मात्र है, फिर भी उसमें सरसता है दोहा. चौपाई 'गर्ग' था। ये काष्ठासंघ माथुर गच्छ पुष्करगण सोरठा, मडिल्ल, त्रोटक आदि अनेक छन्दों में के भट्रारक कुमार सेन की माम्नाय के विद्वान थे, रची गई है। कवि ने उसकी प्रशस्ति में अपना जो सेठ सुदर्शन के समान दृढ़ती थे । इनके पुत्र परिचय भी अंकित किया है। ४ राजुल पच्चीसी
१. प्रस्तुत सहजादपुर प्रयाग या इलाहाबाद के पास गंगा नदी के तट पर बसा हमा था। वहां
अग्रवाल श्रावको के अनेक घर थे, जैन मन्दिर था। १७वीं शताब्दी के कवि भगवतीदास अग्रवाल
नं भी वहां रह कर रचना की थी। २. नामक था श्रीपाल दिनोद, पढत सुनत मन होय प्रमोद ।
जाति वानिया अग्गरवार, गोत अठारह में सिरदार ॥ मनखचून मुझ अल्लि महान, गर्ग गोत्र जवंश प्रधान । पर दादे को 'मंडन' नाम, कुल मण्डन हुो सो धाम ।। दादो 'पारस' तासु समान, यथा नाम तैसे गुण जान । दरिगहमल्ल तात मुझ तनों, शील सुमेरु सुदर्शन मनो । ताको अनुज विनोदीलाल, में यह रचना रची विशाल ।
संवत सत्रह से पचास, द्वेज उजारी अगहन मास । रवि वासर पाई शुभ धरी, ना दिन कथा संपूरन भई ।