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अप्रवालों का जैन धर्म में योगदान
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स्थित हैं कवि की समस्त रचनाएं सुन्दर, स्वपर- कवि का समय १६ वी १७ वीं शताब्दी जान सम्बोधक और उपदेशक हैं।
पड़ता है।
सातवें कवि पाडे रूपचन्द हैं । इनका गोत्र नौवें कवि जगजीवन हैं-यह मागरा के 'गर्ग था। इनका जन्म कुरु देश के सलेमपुर' निवासी मोर संघवी प्रमयराज तथा मोहनदे के नामक स्थान पर हुआ था। इनके पितामह का पुत्र थे। संघवी अभयराज ने प्रागरा में जिन मंदिर नाम 'मामट' और पिता का नाम भगवानदास था। का निर्माण कराया था । जगजीवन विद्वान और भगवानदास की दूसरी पत्नी से रूपचन्द का जन्म कवि थे और जाफरखां के दीवान थे। जाफरखां हना था । इनके चार भाई और भी थे हरिराज, शाहजहां का उमराव था जो पंचहजारी मनसव भूपति, अभयराज और कीर्तिचन्द । इन्होंने वनारस को प्राप्त था। जग जीवन पर लक्ष्मी का वरदमें शिक्षा पाई थी। यह विद्वान कवि थे और हस्त था। यह विद्वानों की गति में बैठते और प्रध्यात्म के प्रेमी थे। इनकी कृतियां परमार्थी तत्त्व चर्चा करते थे। पांडे हीरानन्द जी से इनका दोहाशतक, मंगल गीत प्रबन्ध, नेमिनाथरासा, घनिष्ठ संबंध था। संवत् १७०१ में इनकी प्रेरणा खटोलनागीत और प्राध्यात्मिक पद हैं समवसरण से समवसरण पाठ बनाया था उसकी एक प्रति पाठ (केवलज्ञान कल्याणार्चा) इनकी संस्कृत की उक्त संवत १७०१ की दिल्ली के नये मन्दिरजी रचना है, जिसे उन्होंने संवत् १६६२ में बनाकर में मौजूद है । पंचास्तिकाय का पद्यानुवाद भी समाप्त किया था। इनकी मृत्यु सं० १६६४ में हुई बनवाया था । जगजीवन ने सं० १७०१ में थी। यह प्रागरे में पाये थे प्रोर तिहुन साहु के बनारसीदास की कविताओं का संकलन कर मंदिर में ठहरे थे। कविवर भगवतीदासने अपनी बनारसी विलास नाम दिया था। भापके प्रनेक 'प्रलपर जिनवन्दना' में इसका उल्लेख किया है। पद और एकीभावस्तोत्रादि के पद्यानुवाद मिलते हैं। कवि रूपचन्द जी से सब अध्यातमियों ने गोम्मट
दशवें कवि बंशीदास हैं, जो फातिहाबाद सार वंचवाया था, उसी से बनारसीदास और उनके साथी जैन धर्म में हद हैए थे और उनका नगर के निवासी थे। भद्रारक विशाल कीति के प्रध्यात्मरोग दूर हुप्रा था।
शिष्य थे कवि ने सं० १६६५ ज्येष्ठ कृष्णा द्वितीया
के दिन 'रोहिणी विधि कथा' की रचना की है। पाठवें कवि भाऊ हैं, जो नहनगढ़ या त्रिभुवन- ग्यारह वें कवि हेमराज हैं, जो 'गर्ग' गोती गिरि के निवासी थे। इनके पिता का नाम 'मनू' और मागरा के निवासी थे । ये अच्छे विद्वान टीकासाह था। इनका गोत्र 'गर्ग' था। इस समय तक कार और कवि थे और अध्यात्म की चर्चा करने में इनकी तीन चार रचनाओं का पता चला है इनमें निपुण थे। इन्होंने अपनी पुत्री जैनुलदे को, जो गुण से मादित्यवार कथा तो मुद्रित हो चुकी है। शील से सम्पन्न और रूपवान थी, खूब विद्या पढाई दूसरी रचना नेमिनाथ रास है, जिसमें नेमिनाथ की। हेमराज ने उसका विवाह नन्दलाल से किया पौर राजुल का जीवन-परिचय मंकित है। तीसरी था जो उस समय वयाना से पाकर प्रागरा में रह रचना पाश्वनाथ कथा है जो जयपुर के तेरापंथी रहे थे। इन्होंने प्रवचनसार की टीका सं० १७०० बड़े मन्दिर के गुच्छक नं० १६३ में दर्ज है लिपि में, शाता कुंवरपालन के अनुरोध से बनाई थी। १७०४ है (ग्रन्थ सूची प्र० २ पृ० ३५५) चौथी रचना मोर पंचास्तिकायकी टीका सं० (१७२१) में रूपपुष्पदन्त पूजा है कवि ने रचनाकाल नहीं दिया । चन्द्रजी के प्रसाद से बनाई थी । परमात्मप्रकाश की