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________________ १८ बाबू छोटेलाल जैन स्मृति ग्रंथ हो । किन्तु जैन साहित्य में स्त्रियों की निन्दा और अन्य साहित्य की स्त्री की निन्दा में बहुत फरक है । जैन संस्कृति में स्त्री की निन्दा हमेशा मोक्षमार्ग के साधकों के प्रसंग के साथ हुई है । साधारण गृहस्थ ने नारी को कभी हेय नहीं समझा । इस जैन कवियों ने जहां नारी के विषय में प्रशंसा के पुल बांधे हैं। वहां उसकी निन्दा भी कम नहीं की। उन्होंने स्त्री का मुख कफ का भण्डार, नेत्र दो मल के गढ्डे स्तन दो मांस के लोथड़े तथा नितम्बादि खून और हड्डियों का समूह है, ' रूप में स्त्री के स्वरूप को बीभत्स किया है। ऐसे वर्णनों से कौन नहीं स्त्रियों से मुक्ति चाहेगा । थोड़ी बहुत प्रासक्ति हुई भी तो वह इससे खण्डित हो जायेगी कि स्त्रियो राक्षसनियां हैं, जिनकी छाती पर दो मांस के पिष्ट उगे रहते वे हमेशा विचारों को बदलती रहती हैं और मनुष्य को ललचाकर गुलाम बनाती है । भग्नि भले शीतल हो जाये, विष चाहे प्रमृत हो जाय, किन्तु स्त्रियाँ कभी अपनी वक्रता नहीं छोड़ सकतीं। 3 छतः स्त्रियों के सम्पर्क में नहीं भाना चाहिए। उनके संसर्ग से मनुष्य धर्म का पात्र नहीं रह जाता चौर न ही मोक्ष का साधक बन पाता है । क्योंकि -- जिस उर प्रन्सर बसत निरन्तर नारी प्रौगुन खान | तहां कहां साहिब को वासा दो खांडे, इकम्यान ॥ * श्रतः विपवेल रूपी नारी को जब बड़े बड़े जोगीश्वरा तक त्याग कर चले गये हैं तो हम क्यों १. जीवन्धर चम्पू लम्ब ७, पृष्ठ ३८ २. उत्तराध्ययन सूत्र ३. प्राचार्य सोमदेव ४. यशस्तिलकचम्पू प्रथम भ. श्लोक ७७-८१ ५. कविवर भूधर ६. जिनवाणी संग्रह - चानत उनके चक्कर में फंसें ? क्योंकि नारी शब्द का अर्थ ही है- 'न+मरि' पुरुष के लिए नहीं है शत्रु, जिसके समान ऐसी नारी । शत्र को कौन नहीं त्यागना चाहेगा । नारी वैसे ही विषैली होती है यदि उसे अधिक शिक्षित करा दिया जाय तो सांप को दूध पिलाता जैसा है" प्रादि-आदि । निश्चय ही ये निन्दा विषयक सारे कथन नारी के किसी एक पहलू को लेकर कहे गये हैं। यह उसका सर्वाङ्ग चित्रण नहीं है। क्योंकि यदि ऐसा होता तो गृहस्थ जीवन के लिए नारी की इतनी उपयोगिता न मानी जाती कि उसके बिना पुरुष का जीवन निष्फल है। वह जीते हुए मृतक के समान रहता है। नारी के बिना घर एक भयंकर प्रटवी-सा प्रतीत होता है।" कुशल नारी हो गृहस्थ के प्राध्यात्मिक अनुष्ठान में पूर्ण सहयोग प्रदान करती है । उसके त्रिवर्गों को साधने वाली होती है । गृहिणी ही वास्तव में घर है, ईंट-पत्थर के बने मकान मादि नहीं १० इत्यादि । इतना ही नहीं नारी की प्रशंसा में प्राचार्य जिनसेन ने यहां तक कहा है कि- 'नारी गुरपवती धत्ते स्त्री सृष्टिरग्रिमं पदम्' गुणवती स्त्रियां अपने गुणों के द्वारा संसार में श्रेष्ठ पद को प्राप्त होती हैं । जैन साहित्य में स्त्री को चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में से एक माना गया 1 धर्मपरायण पत्नी के न होने पर कोई भी राजा अभिषेक के योग्य नहीं समझा जाता । ११ इतना उच्च स्थान शायद ही नारी को कहीं मिला हो । ७. तन्दुल वैकालिक पृष्ठ ५० ८. यशस्तिलकचम्पू उत्त० पृष्ठ १५२ ६. वही प्र. प्र. क्लोक १२१ १०. सागारधर्मामृत वि. म. श्लोक ५९-६० ११. जम्बूदीपपत्ती
SR No.010079
Book TitleBabu Chottelal Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye, Others
PublisherBabu Chottelal Jain Abhinandan Samiti
Publication Year1967
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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