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जैन संस्कृति में नारी के विविध रूप
संसार से विरक्त हो मुनि हो गया तो कोशा ने भी जब वे अकेली भिक्षा के लिए जातीं तो उन्हें जिन दीक्षा ग्रहण कर ली।" उज्जनी की प्राम के मनचलों के व्यंगबाणों को सहना पड़ता देवदत्ता ने भी मूलदेव के साथ श्रावक धर्म स्वीकार था। कभी कभी अनेक कामी गृहस्थ अपने घर की किया था।२ अन्य जैन धर्मावलम्बी गरिएकामों का स्त्रियों को उपदेश देने के लिए तरुण सुन्दर भी उल्लेख मिलता है, जिनमें देवदत्ता प्रमुख थी। साध्वियों को प्रामन्त्रित कर उनसे मनमानी करते इसके घर देवसंघ के मुनियों ने चातुर्मास किया थे। किंतु उन तेजस्विनी तापसियों का तेज और था। गणिकानों द्वारा अनेक जैन मंदिर बनवाने शील हमेशा उनकी रक्षा करता था। किन्तु इतने का भी उल्लेख मिलता है।४
बड़े संघ में कुछ साध्वियों के शीलभंग भी हो जाते साध्वी नारियाँ
थे। उनके लिए कोई रियायत नहीं थी। संघ की
प्राचार्या पता पड़ने पर उन्हें संघ से निष्कासित कर ___ जैन संस्कृति को नारी हमेशा चाहे वह गृहस्थ देती थीं। इसके अतिरिक्त कभी-कभी नारी संघ जीवन में हो अथवा सन्यास जीवन में
म को जंगल में रहने के कारण चोर डाकूमों से भी प्राध्यात्मिकता की ओर उन्मुख रही है। हानि उठानी पड़ती थी। उसका जीवन त्याग और तपस्या का जीवन था। जैन संस्कृति के उन्नायकों ने नारी को
इन कठिनाइयों के बावजूद भी जैन नारी संघ निर्वाण प्राप्ति के मार्ग में प्राने से कभी नहीं
प्रात्म-कल्याण के मार्ग से विचलित नहीं हुए।
आत्म-कल्याण क माग रोका। भगवान महावीर ने नारी को अपने संघ में उन्होंने अपने धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करते दीक्षित कर उनके प्रात्म-साधन का मार्ग खोल हुए जैनाचार्यों के प्रादर्श को कायम रखा तथा दिया था। इनके पूर्व के २३ तीथंकरों ने भी इसे अपने नैतिक जीवन के स्तर को हमेशा ऊँचे उठाये किसी न किसी रूप में स्वीकारा ही था। प्रतः रखा। जैन संस्कृति की नारी के प्रति उदार पुरुषों की भांति नारियों को भी प्रात्मकल्याण प्रवृत्ति का हा यह फल था । के लिए मार्ग प्रशस्त था। विशल्या, चन्दना, स्त्रियों की निन्दा और प्रशंसा राजमति प्रादि वे साध्वियां हैं जो त्याग
जैनसंस्कृति व साहित्य में स्त्रीनिन्दा के और तपस्या की मूर्ति थी । उनका चरित्र
प्रकरणों का पाना स्वाभाविक है। क्योंकि प्रायः अतुलनीय है।
सभी जैन साहित्य त्याग और बैराग्य को उद्देश्य में अनेक नारी संघों का उल्लेख जैन साहित्य में रख कर लिखा गया है । वैदिक संस्कृति में नारी मिलता है। एक संघ में करीब छनीस हजार का स्थान बहुत ही निम्न माना गगा है । उसे नारियों के होने तक का प्रमाण है।' नारी संघों दासी से ऊपर उठने ही नहीं दिया गया। इस तरह को साध्वियों को एक पोर जहां ध्यान एकाग्र फर के वातावरण में ही जैन संस्कृति का जन्म हुआ। मात्मा का चिंतन करना होता था, वहीं दूसरी ओर प्रतः अन्य संस्कृति के प्रभाव से भी हो सकता है बाह्म कठिनाईयां भी उन्हें कम नहीं थी। स्त्री विषयक निन्दा जैन साहित्य में प्रविष्ट हुई
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५. पदमपुराण पृष्ठ ४२५-२६. ६. वसुमति चरित्र
१. उत्तराध्ययन सूत्र २ पृष्ठ २६ २. नायाधम्म कहा पृष्ठ ६० ३. इन्डियन एन्टेकरी भाग २० पृष्ठ ३४६ ४. वीर, वर्ष ४, पृष्ठ ३०२